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तत्त्वार्थचिन्तामणिः .
असत्य वक्ता कहे तो उतने अंशमें वह सत्यवक्ता ही है । मिथ्याज्ञान भी स्वांशको जानने में प्रमाण स्वरूप है। अनेक मिथ्याज्ञान थोडे स्वकीय विषयको भी छूते हैं। दुष्टपुरुषोंमें भी क्वचित् एक आध अच्छा गुण होता है । गुलाबके फूलमें कांटेके समान किन्ही प्रतिष्ठित पुरुषों में भी दोषकी छीटें पड जाती हैं।
अथायमेकांतः सर्वथा वितथज्ञानमप्रमाणं सत्यं तु प्रमाणमिति चेत् तदा कुतो वितवेदनस्य स्वरूपे प्रमाणता बहिरर्थे त्वप्रमाणतेति व्यवतिष्ठेत ।
__ अब यदि किसीका यह एकान्त होय कि झूठा ज्ञान तो सभी अंशोमें अप्रमाण है । और सत्यज्ञान सर्व अंगोमें प्रमाण है, इस प्रकार माननेपर तो हम जैन कहेंगे कि यों तो मिथ्याज्ञानको स्वरूपमें प्रमाणपना और बहिरंग विषयको जाननेमें तो अप्रमाणपना यह कैसे व्यवस्थित होगा ? यानी मिथ्याज्ञान अपनेको जानने में अप्रमाण रहा तो अव्यवस्था हो जायगी । सीपमें चांदीको जाननेवाला ज्ञान मिथ्याज्ञान है। और उस झूठे मिथ्याज्ञानको विषय करनेवाला ज्ञान भी मिथ्याज्ञान होगा और उसको जाननेवाला भी ज्ञान मिथ्याज्ञान होगा। इस अनवस्थाके ढंगसे अप्रमाणपनेका निर्णय होना अशक्य है । सभी ज्ञानोंको अपना स्वरूप जानने में प्रमाणपन अनिवार्य होना चाहिये ।
स्वरूपे सर्वविज्ञानाप्रमाणत्वे मतक्षतिः। बहिर्विकल्पविज्ञानप्रमाणत्वे प्रमांतरम् ॥ ४५॥
सम्पूर्ण विज्ञानोंको यदि स्वरूपमें अप्रमाणपना माना जायगा तो बौद्धोंको अपने सिद्धांतकी क्षति प्राप्त होगी और यदि विकल्पज्ञानोंको बहिरंग अर्थको विषय करनेमें प्रमाणपना माना जायगा तो प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणोंसे न्यारे एक तीसरे प्रमाण माननेका प्रसंग आता है।
न हि सत्यज्ञानमेव स्वरूपे प्रमाणं न पुनर्मिथ्याज्ञानमिति युक्तं । नापि सर्व तत्राप्रमाणमिति सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमिति स्वमतक्षतेः। ___समीचीनज्ञान ही अपने स्वरूपमें प्रमाण है। किन्तु फिर मिथ्याज्ञान अपने स्वरूपमें प्रमाण नहीं है, यह कहना युक्त नहीं है । तथा सभी ज्ञान उस अपने स्वरूपको जाननेमें अप्रमाण हैं, यह भी कहना युक्तिपूर्ण नहीं है । क्योंकि यों तो बौद्धोंके मतकी क्षति होती है। संपूर्ण आत्माओंके ज्ञानोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है, ऐसा बौद्धोने माना है । यानी सभी सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना अभीष्ट कर ज्ञानोंको खांशमें अप्रमाणपना कहनेपर बौद्धोंको अपने मतकी हानि उठानी पडती है। - सर्व मिथ्याज्ञानं विकल्पविज्ञानमेव बहिरर्थे प्रमाणं स्वरूपवदित्यप्ययुक्तं, प्रकृतप्रमाणात् प्रमाणांतरसिद्धिप्रसंगात् । तिमिराश्वभ्रमणनौयातसंक्षोभायाहितविभ्रमस्य वेदनस्य प्रत्यक्षत्वे प्रत्यक्षमभ्रांतमिति विशेषणानर्थक्यं । 10