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तत्त्वार्यलोकमासिक
जायगा । ऐसा कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि-विचाशील भाई !
प्रमाणव्यवहारस्तु भूयः संवादमाश्रितः। गंधद्रव्यादिवद्भूयो विसंवादं तदन्यथा ॥ ४३॥
प्रमाणपनेका व्यवहार तो अनेकबार हुये सम्वादको आश्रय लेकर प्रवर्त रहा है, जैसे कि गंधद्रव्य, रसद्रव्य आदिक हैं । तथा भूरिभूरि विसम्बादको आश्रित करता हुआ उस प्रमाणपनेसे दूसरे प्रकारका यानी अप्रमाणपनेका व्यवहार हो रहा है । अर्थात्-प्रचुर गन्ध होनेसे कर्पूर, चन्दन, कस्तूरी इत्यादि गन्धद्रव्य हैं । तथा स्पर्शरूप और गन्धके होनेपर भी रंग गोटा चूना ( कलई) आदि रूपद्रव्यं हैं । नीबू , लवण, मिश्री आदि रसच्य हैं । तथा रुई, मखमल अदि पदार्थ प्रचुर कोमल स्पर्शके होनेसे स्पर्शद्रव्य कहे जाते हैं। उसी प्रकार जिन ज्ञानोंमें अति अधिक सम्बाद है, वे प्रमाण हैं । भले ही उनमें थोडा विसम्बाद पड़ा रहो। तथा जिम ज्ञानोंमें बहुत विसम्बाद है, वे अप्रमाण हैं । भले ही उनमें स्वल्प सम्बाद पडा रहो। संसारमें सज्जनता, दुर्जनता, मूर्खपना पण्डितपना, रोगी, नीरोगपन, सुन्दरता, असुन्दरता आदिः व्यवहार भी बहुमागकी अपेक्षासे होते हैं । हां, कोई कोई पूर्णरूपसे सुन्दर, सजन और नीरोग होते हैं । उनके लिये केवलज्ञान दार्टान्त है।
सत्यज्ञानस्यैक प्रमाणस्वव्यवहारो युक्तिमान भूयः संवादात् । वितयज्ञानस्यैव वाऽप्रमाणस्वव्यवहारो भूयो विसंवादात् तदाश्रितत्वात्तव्यवहारस्य । दृष्टो हि लोके भूयसि व्यपदेशो यथा गंधादिना गंधद्रव्यादेः सत्यपि स्पर्शवत्वादौ ।
प्रतिपत्ति, प्रवृत्ति और प्राप्तिकी एक अधिकरणता या प्रमाणान्तरोंकी प्रवृत्ति अथवा विषयमें अभीष्ट अर्थक्रियाकारीपन रूप सम्बादोंके कई बार हो जानेसे सत्यज्ञानको ही प्रमाणपनेका व्यवहार युक्ति सहित है । और बहुलतासे विसम्बाद हो जानेके कारण मिथ्या ज्ञानोंको ही अप्रमाणपनेका व्यवहार है । क्योंकि उन सम्बाद और विसम्बादके अधीन होकर वह प्रमाणपना और अप्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है । लोकमें भी बहुभागसे हो रहे स्वभावोंमें वैसा व्यवहार होना देखा जाता है। जैसे कि स्पर्श, रस, आदिके होनेपर भी गन्धद्रव्य, रसदव्य आदिको अविभाग प्रतिच्छेदोंकी प्रचुरतासे गन्ध आदि करके गन्धवान्, रसवान् , रूपवान्पनेका व्यवहार हो जाता है।
येषामेकांततो ज्ञानं प्रमाणमितरच न । तेषां विप्लुतविज्ञानप्रमाणेतरता कुतः ॥ ४४ ॥
जिन वादियोंके यहाँ समीचीन ज्ञान पूर्ण अंशोंमें एकान्त रूपसे प्रमाण ही है, और उससे मिम मिथ्याज्ञान सर्वथा ही प्रमाण नहीं हैं, ऐसा आग्रह है, उनके यहां मिथ्याज्ञानोंकी प्रमाणता और अप्रमाणता भला कैसे व्यवस्थित होगी ! बताओ। झूठ बोलनेवाला मनुष्य स्वयं अपनेको यदि