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तच्चार्थचिन्तामणिः
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न्वारी न्यारी परिणतियां होती रहती हैं। किस समयकी परिणति सम्बद्ध वस्तुके स्पर्शको ठीक ठीक जानती है, इसका निर्णायक उपाय हमारे पास नहीं है । घ्राण इन्द्रियमें भी यही टंटा लग रहा है । दूरसे, समीप से और अतिसमीपसे गन्धका ज्ञान होनेमें विशेषतायें हो रहीं हैं । यद्यपि गन्धयुक्त स्कंधोंके फैलनेसे भी गन्धपरिणतिके अनुसार सुगन्ध दुर्गन्धका तारतम्य हो सकता है। फिर मी एकसी गन्धमें नाना व्यक्तियोंको भिन्न प्रकारकी मन्धे आ रही हैं । श्लेष्मरोगीकी तो गन्धज्ञानमें 1 • बहुत चूक हो जाती है । कोई कोई तो हींगडा, कालानिमक, लहसुन आदिकी गन्धोंमें सुगन्ध या दुर्गन्धपका ही निर्भय अपने अपने विचार अनुसार कर बैठे हैं, जो कि एक दूसरे से विरुद्ध पडता है । शद्वके श्रावण प्रत्यक्षमें भी ऐसी ही पोलें चल रही हैं। दूर निकटवर्ती शद्धोंके सुनने में अनेक प्रकार के अन्तर हो रहे हैं। पदार्थोंके निमित्तसे स्थूल सूक्ष्मशब्दोंका परिणमन हो जाता है, किन्तु आंखोंके समान कानों के दोष से भी शब्दज्ञान में तारतम्य हो रहे हैं। बरिरंग कारणोंके समान अन्तरंग क्षयोपशम, शल्य, संकल्प, विकल्प, प्रसन्नता, दुःख, रोग आदिकी अवस्थाओंमें हुये ज्ञानोंमें भी अनेक प्रकार छोटे छोटे विसम्बाद हो जाते हैं । श्रुतज्ञानमें भी अनेक स्थलोंपर गड बड मच रही है। इष्टको अनिष्ट और अनिष्टको इष्ट समझलेते हैं । जब सांव्यवहारिक प्रत्यक्षोंका यह हाल है तो परोक्ष श्रुतज्ञानों में तो और भी पोल चलेगी । किसी मनुष्यने सहारनपुर में यह कहा कि बम्बई में दो पहलवानोंकी भित्ती (कुश्ती) हुयी। एक मल्लने दूसरेको गिरा दिया। दर्शकोंने विजेताको हजार रुपये परितोष (इनाम) में दिये । यहां विचारिये कि श्रोता यदि कड़े से शोंके वाच्य अर्थका ही ज्ञान करे तब तो ठीक भी मान लिया जाय, किन्तु श्रोता अपनी कल्पनासे लम्बे चौडे अखाडेको गढ़ लेता है, एक पहलवान काला है, एक गोरा है। दर्शक लोग कुर्सी पर बैठे हुये हैं, ऐसे ऐसे वस्त्र आभूषण पहने हुये हैं, हजार रुपये के नोट दिये होंगे, विजेता मल्ल प्रसन्नतामें उछलता फिस होगा, इत्यादि बहुतसी ऊटपटांग बातोंको भी साथ ही साथ विना कहे ही श्रुतज्ञानमें जानता रहता है, जो कि झूठी हैं । श्रोता भी विचारा क्या करे ? झूठी कपोल कल्पनाओंके विना उसका कार्य नहीं चलता है । दोनों लडनेवाले मल्ल अमूर्त तो हैं नहीं । अतः उनकी काली गोरी मोंछवाली या विना मोंछकी मूर्तिको अपने मनमें गढ लेगा । आकाश में तो कोई भित्ती होती नहीं हैं । अतः अखाडेकी भी कल्पना करेगा । बिचारे देखनेवाले मनुष्य कहां बैठेंगे । अतः कुर्सी, मूढा, दरी, चटाई आदिको भी अपने श्रुतज्ञानमें लायेगा । बात यह है, एक छोटे श्रुतज्ञानमें चौगुनी अठगुनी बातें सच्ची झुंठी घुस बैठती हैं। ऐसी धुन सवार है, कोई क्या करे ? महापुराणको सुनकर भरत और बाहुबली के युद्धमें भी बहुतसी बातें अन्ट सट जोडली जाती हैं। भले ही चक्रवर्तीका मुख पश्चिमकी ओर हो, किन्तु श्रोताओंके ज्ञानमें पूर्व, दक्षिण, उत्तरकी ओर भी जाना जाता है। ऐसी कितनी कितनी गलतियोंको भगवान् जिनसेन आचार्य कण्ठोक्त कहकर कहांतक सुधरवा सकेंगे । भगवान् के जन्मकल्याणके समय इन्द्र आता है । पतितपावन भगवान्को सुमेरुपर्वतपर लेजाता है । इस कथन की कितने प्रकारकी सूरतें मूरतें बनाकर श्रोता जम
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