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तत्त्वार्यश्लोकवातिक
प्रतिबिम्बोंमें भी तारतम्य है । सार यह है कि ठीक ठीक लम्बाई, चौडाई, रंग और विन्यासका चाहे जिसकी आखोंसे यथार्थ निर्णय होना कठिन है । सभी बालक, बृद्ध, रोगी, अपने अपने ज्ञानको ठीक मान बैठे हैं । बडे मोटे अन्तरके दीखनेपर तो बाधा उपस्थित कर देते हैं । किन्तु छोटे अन्तरोंपर तो किसीका लक्ष्य ही नहीं पहुंच पाता है। यदि हम चक्षुओंसे केवल वृक्ष या शुद्ध वस्त्र अथवा मुखका ही ज्ञान कर लेते तो भी ठीक था, किन्तु चाक्षुष प्रत्यक्षमें तो उन लम्बाई चौडाई, रंग, चपटापन, आदि सूक्ष्म अंशोंका प्रतिभास हो गया है, जो कि यथार्थ नहीं हैं। ऐसी दशामें चाक्षुष प्रत्यक्षको सर्वांग रूपसे प्रमाण कैसे कहा जा सकता है ? पीलिया रोगीको शुक्ल शंख पीला दीखता है । अन्य मनुष्योंको कम पीला दीखता है । शंखके ठीक रूपका ज्ञान तो लाखों से किसी एकको ठीक ठीक होगा। इसी प्रकार रसना इन्द्रियमें भी समझ लेना । अधिक भूख लगनेपर जो मोदकका स्वाद है, तृप्त होनेपर वह नहीं । खाते खाते मध्यमें स्वादकी अनेक अवस्थायें हैं । ज्वरवाळेको स्वाद अन्य ही प्रकारका प्रतीत होता है। यद्यपि ज्वरके निमित्तसे जिह्वाके ऊपर स्वाद बिगाडनेवाले मलके जम जानेसे मलका सम्पर्क हो जानेपर भी स्वाद बिगड जाता है। किन्तु नीरोग अवस्थामें भी तो मिन्न भिन्न परिस्थितिके होनेपर एक ही वस्तुमें न्यारे न्यारे रस अनुभूत होते हैं । अतः जीभके मलका बहाना पकड लेना छोटापन है। पेडा खानेके पीछे सेव फलका वैसा मीठा स्वाद नहीं आता है । जैसे कि पेडा खानेके पहिले आ सकता है। प्रायः बहुतसे पुरुषोंका कहना है कि बाल्य अवस्थामें फल, दुग्ध, मोदक अंडिया ( भुट्टिया ) ककडी, मुझे हुए चना, परमल आदिके जैसे स्वाद आते थे, वैसे कुमार युवा अवस्थाओंमें नहीं आते हैं। और युवा अवस्थाकेसे स्वाद बूढेपनमें नहीं । उस उस अवस्थाकी लार या दांतोंसे पीसना, चवाना, अन्तरंग बुभुक्षा आदिसे भी स्वादमें अन्तर पड जाता है । कहना यही है कि मोदकके रसका ठीक ठीक आस्वाद मला कब किसको हुआ ? किन्तु बालक, युवा, रोगी आदि सभीने तो अपने ज्ञानोंमें स्वादके विशेष अंशोंको जान लिया है । अतः सभी जीवोंके अनेक तारतम्यको लिये रासन प्रत्यक्षको सर्वांगरूपसे तो प्रमाण नहीं कहा जा सकता है । स्पर्शन इन्द्रियसे उत्पन्न हुआ प्रत्यक्ष भी मोटे मोटे अंशोंमें प्रमाण है। जान लिए गए सूक्ष्म अंशोंमें प्रमाण नहीं हैं। हम लोगोंमें आपेक्षिक विज्ञान अधिक होते हैं। ज्वरी पुरुषको वैधका शरीर अधिक शीतल प्रतीत होता है । और वैधको ज्वरीका शरीर उष्ण दीखता है। ठण्डे पानीमें अंगुली डालकर पुनः कुछ उष्ण जलमे अंगुली डालनेपर उष्ण स्पर्शका प्रतिमास होता है। किन्तु अधिक उष्ण जलमें अंगुली डुबोकर पुनः उसी न्यून उष्णजलमें अंगुली डालनेसे शीत स्पर्शका प्रतिभास होता है। जैसे कि अधिक मिर्च खानेवालेको स्वल्प मिर्च पडे हुये व्यंजनमें चिरपिरा स्वाद नहीं आता है। किन्तु मिरचको सर्वथा नहीं खानेवाले विद्यार्थी या बालकका मुख तो उस व्यंजनसे झुलस जाता है। हम लोगोंके शरीरमें अन्तरंग बहिरंग कारणोंसे पदार्थोके जाननेकी