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तत्वार्थ लोकवार्तिके
होकर असत्य है तो अप्रमाण ही है । ऐसी दशामें भला प्रमाणपना और अप्रमाणपना कैसे मिट सकता है ? यदि प्रमाणपन, अप्रमाणपन, सत्यपन आदि सम्पूर्ण विकल्पोंसे रहित होनेके कारण संवेदन तो संवेदन ही है, और कुछ नहीं, इस प्रकार अद्वैतवादियोंके कहनेपर तो हमें उपहास पूर्वक कहना पडता है कि इस ढंगसे तो तत्त्व भले प्रकार व्यवस्थित हो गये ? युक्तिके विना केवल राजाज्ञा के समान यों ही तुम्हारे तत्त्वों को कौन मान लेगा ? वस्तुरूपसे सभी प्रकार नहीं व्यवस्थित हो रहे खरविषाणसे इस अद्वैत सम्वेदनका भला कौनसा अन्तर है ? अर्थात् - सभी विकल्पोंसे रहित सम्वेदन तो खरविषाणके समान असत् है । तुम्हें कोई विशेषता दीखती हो तो बताओ । यदि संवेदनका स्वयं प्रकाशमानपना खरविषाणसे अन्तर डालनेवाला है । यों कहोगे तो हम पूछेंगे कि वह सम्बेदन यदि वास्तविक सत् है, तत्र तो प्रमाणपनेको खींच लेता है । तिस कारण अद्वैतवादियोंका वह संवेदन अकेला होता हुआ और किसी भी पदार्थ के साथ वह तदाकार न होकर भी जैसे स्वरूप में प्रमाण है, तिस ही प्रकार नहीं आकारको रखता हुआ वह संवेदन बहिरंग अर्थको जाननेमें भी क्यों नहीं प्रमाण हो जावे ? उस अपने आकारका समान अर्थोंसे व्यभिचार रखनेवाले सम्वेदनका निराकरण नहीं किया जा सकता है । अर्थात् - तदाकारताको प्रमाण माननेपर स्वसम्वेदन प्रत्यक्षसे हुये व्यतिरेकव्यभिचार और सदृश अर्थोंसे हुये अन्वयव्यभिचारका निवारण नहीं हो सकता है। दूसरी बात यह है कि इस ढंग से परम्परा द्वारा ज्ञान होनेका भी परिहार हो ही जावेगा। क्योंकि ज्ञान और अर्थके अन्तराल (मध्य) में तदाकारताका प्रवेश नहीं किया गया है।
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यदि पुनः संवेदनस्य स्वरूपसारूप्यं प्रमाणं सारूप्याधिगतिः फलमिति परिकल्प्यते तदानवस्थोदितैव । ततो ज्ञानादन्यदिद्रियादिसारूप्यं न प्रमाणमन्यत्रोपचारादिति स्थितं ज्ञानं प्रमाणमिति ।
यदि फिर तदाकारताका आग्रह रक्षित रखते हुए बौद्ध इस प्रकार कल्पना करेंगे कि संवेदनके स्वरूप में भी ज्ञानस्वरूपका आकार ( प्रतिबिम्ब ) पडता है । अतः ज्ञानमें स्वके रूपकी तदाकारता प्रमाण है और उस सारूप्यकी अधिगति होना फल है । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसी • कल्पना करनेपर तो अनवस्था ही कही गयी समझना चाहिये । अर्थात् - तदाकारताकी अधिगति भी साकारज्ञानद्वारा होगी और उस साकारज्ञानकी तदाकारताका अधिगम भी तदाकार ज्ञानसे होगा । इस प्रकार नियतव्यवस्था नहीं हो सकती है । तिस कारण ज्ञानसे भिन्न हो रहे इन्द्रिय, सन्निकर्ष, तदाकारता, आदिक प्रमाण नहीं है, सिवाय उपचारके । अर्थात - ज्ञानद्वारा ज्ञप्ति कराने में कुछ सहकारी हो जसे मले ही इन्द्रिय और सन्निकर्षको व्यवहारसे प्रमाण कह दिया जाय, अन्यथा नहीं। तथा ज्ञानमें पदार्थों का आकार तो पडता नहीं हैं । मूर्त पदार्थ में ही पौगलिक मूर्त पदार्थका आकार पडता है । i) आकारका अर्थ समझना, समझा सकना, विकल्प करना, उल्लेख करना किया जाय तो ऐसे