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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
बौद्ध कहते हैं कि प्रमाणपना कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है । व्यवहारसे प्रमाणपना मान लिया गया है । देखो कहीं ज्ञान प्रमाण है। क्वचित् हस्ताक्षर प्रमाण हैं । कहीं पर साक्षी (गवाह ) प्रमाण माने जाते हैं । एक ही मनुष्य किसीके लिये प्रमाण है। अन्यके लिये अप्रमाण है । जैसे कि समर्थ प्रभुके दोष भी गुण हो जाते हैं । किसी धनपति या प्रचण्ड अधिकारीके अपान वायुका निःस्सरण हो जानेपर चाटुकार पुरुष ( खुशामदा) उसकी पाचन शक्तिकी प्रशंसाके पुल बांध देते हैं, जब कि निर्धनको ऐसा अवसर आ जानेपर वे ही स्वार्थमट्ट निन्दाके छपार बांध देते हैं। वैसे ही प्रमाणपना कोई निर्णीत नहीं है । व्यवहारसे जिसको भी प्रमाण मान लिया सो ही ठीक है । तथा शास्त्र भी कोई नियत हुये प्रमाण नहीं हैं, इस प्रकार हमारे बौद्ध ग्रन्थोंमें कहा है । शास्त्र केवल मोहकी निवृत्ति कर देता है । कोई आप्तमूलक प्रमाण नहीं है । बहुतसी झूठी कहानियों या उपन्यासोंसे भी अनेक अच्छी २ शिक्षायें मिल जाती हैं । मोह दूर हो जाता है । अतः मुख्यप्रमाणोंके न माननेपर हमको अपने मतसे कोई विरोध नहीं आता है। बौद्धके इस प्रकार कहनेपर तो हम स्याद्वादी कहते हैं कि इस प्रकार तब हो सकता था यदि यह बौद्ध प्रमाणको न कहता होता । किन्तु बौद्धोंने तो अज्ञात अर्थका प्रकाश करनेवाला और स्वरूपकी अधिगतिका उत्कृष्ट कारण प्रमाण तत्त्व माना है । अथवा स्वरूपकी अधिगतिसे उसका जनक प्रमाण न्यारा है । इस प्रकार बौद्धोंने स्वकीय शास्त्रोंमें मुख्यप्रमाणको इष्ट किया है । फिर पोले व्यवहारकी शरण क्यों ली जाती है ? आप अपने रहस्यको आप ही जाने भीतर कुछ बाहर कुछ ऐसा हमें अभीष्ट नहीं है।
संवेदनाद्वैताश्रयणात् तदपि न च तदित्येवेति चेत् न तस्य निरस्तत्वात् । किं चेदं संवेदनं सत्यं प्रमाणमेव मृषासत्यमप्रमाणं । न हि न प्रमाणं नाप्यसत्यं सर्वविकल्पातीतत्वात् संवेदनमेवेति चेत् सुव्यवस्थितं तत्त्वं । को हि सर्वथानवस्थितात्खरविषाणादस्य विशेषः। स्वयं प्रकाशमानत्वमिति चेत् तद्यदि परमार्थसत् प्रमाणत्वमन्वाकर्षति । ततो द्वयं संवेदनं यथाखरूपे केनचिचदतत्खरूपमपि प्रमाणं तथा बहिरर्थे किं न भवेत् तस्य तव्यभिचारिणो निराकर्तुमशक्तेः । पारंपये च परिहृतमेव स्यात् । संविदर्ययोरंतराले . सारूप्यस्याप्रवेशात् ।
बौद्ध कहते हैं कि सम्वेदनके अद्वैतका आश्रय करनेसे न तो हम उस मुख्य प्रमाणको मानते हैं । और उस स्वसंवेदनको भी प्रमाण नहीं मानते हैं । अद्वैत पक्षमें तदुत्पत्ति, तदाकारता आदिका झगडा ही नहीं हैं । केवल वह शुद्ध संवेदन ही है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि उस संवेदन अद्वैतका पूर्वप्रकरणोंमें खण्डन किया जा चुका है । दूसरी बात यह है कि यह आपका माना हुआ संवेदन यदि सत्य है, तब तो प्रमाण ही होगा और यदि मिय्या