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तत्वार्थचिन्तामणिः
mmmmmmmmhone आदि गुण तो विकल्पनायें नहीं करते हैं । यदि उनको समझना या समझाना होगा तो उनका ज्ञान द्वारा उल्लेख हो सकता है । अन्यदा आत्मामें स्वांशपरिणत हो रहे बैठे रहो।
यथा चक्षुरादेराकाशादिभिः सत्यपि संयोगादौ सन्निकर्षे तदधिगतेरभावस्तथा क्षणक्षयवर्गप्रापणशक्त्यादिभिर्दानादिसंवेदनस्य सत्यपि सारूप्ये तदधिगते शून्यता खयमिष्टैव तदालंबनप्रत्ययत्वेपि तस्य तच्छून्यतावत् । " यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" इति वचनात् । ततो नायं समिकर्षवादिनमतिशेते । किं च ।
___ जिस प्रकार वैशेषिकमतमें माने जा रहे तेजोद्रव्य चक्षु, जलद्रव्य रसना आदि इन्द्रियोंका आकाश, आत्मा, आदि द्रव्यों के साथ संयोग संनिकर्ष विद्यमान हो रहा है, तथा रूप, रूपत्वके समान रस, रसत्व या ज्ञान, ज्ञानत्व, आदिके साथ भी चक्षुका संयुक्तसमवाय और संयुक्तसमवेतसमवाय सन्निकर्ष हो रहा है । फिर भी उन आकाश, रस, ज्ञानत्व आदिकी अधिगति चक्षु आदिकसे नहीं होती मानी गयी है । अतः तुम बौद्ध संनिकर्षको प्रमाण नहीं मानोगे, तिस ही प्रकार स्वलक्षण या दाताके दान या हिंसककी हिंसा आदिको जाननेवाले ज्ञानका क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति, नरकगमनयोग्यता, आदिके साथ तदाकारपना होते हुये भी उन क्षणिकत्व आदिकी अधिगतिका अभाव स्वयं बौद्धोंने इष्ट ही किया है । भावार्थ-दाताको विषय करनेवाले निर्विकल्पक ज्ञानमें दानका आकार पड जानेसे उसकी तदात्मक स्वर्गप्रापणशक्तिका भी आकार उस ज्ञानमें पड चुका है । तथा हिंसककी आत्माका प्रत्यक्ष हो जानेपर ही नरकप्रापणशक्तिका भी आकार आ चुका है । फिर इनको जाननेके लिये दूसरे अनुमान ज्ञान क्यों उठाये जाते हैं ! चाक्षुष प्रत्यक्षसे ही इनका ज्ञान कर लिया जाय, इस कारण अन्वयव्यभिचार हो जानेसे तुम बौद्धोंकी मानी हुई तदाकारता भी प्रमाण नहीं है । तदाकारताके होनेपर भी अधिगतिकी शून्यता देखी जाती है। जैसे कि उनको उस ज्ञानका आलम्बन कारण मानते हुये भी उस अधिगतिकी शून्यता है । अर्थात् -ज्ञानके विषयको बौद्धोंने ज्ञानका आलम्बन कारण माना है । तथा निर्विकल्पक बुद्धि जिस ही विषयमें इस सविकल्पक बुद्धिको पीछेसे उत्पन्न करावेगी उस विषयमें ही इस निर्विकल्पक ज्ञानको प्रमाणता है, ऐसा बौद्ध प्रन्थोंमें लिखा हुआ है। यहां लगे हाथ तदुत्पत्तिका भी व्यभिचार दे दिया गया है। यानी क्षणिकत्व आदिसे निर्विकल्पक द्वारा क्षाणिकत्व आदि आलम्बनोंका जानना नहीं होता है। तिस कारण यह बौद्ध पंडित संनिकर्षको प्रमाण कहनेवाले वैशेषिकोंका अतिशय नहीं करता है । ग्रामीण किं वदन्ती है कि जैसे ही नागनाथ हैं वैसे ही सर्पनाथ हैं । कोई अन्तर नहीं है। और दूसरी बात यह भी है कि
खसंविदः प्रमाणत्वं सारूप्येण विना यदि । किं नार्थवेदनस्येष्टं पारंपर्यस्य वर्जनात् ॥ ३६ ॥