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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
ज्ञान हुआ, जो कि पहिले ज्ञान से उत्पन्न है । पहिले ज्ञानका आकार भी उसमें है । तथा पहिले 1 ज्ञानका अध्यवसाय करनेवाला भी है । अतः पहिले पीत आकारको ज्ञाननेवाले ज्ञानसे उत्पन्न हुए दूसरे पीत आकारवाले ज्ञानके तदुत्पत्ति, तदाकारता और तदध्यवसाय स्वरूपके विद्यमान होनेपर भी उसमें प्रमाणपता नहीं माना गया है । बौद्धोंके विचार अनुसार तो तीनों नियामकों के होनेसे उसमें प्रमाणपनेका प्रसंग आता है । अतः तदध्यवसायका मिथ्याज्ञानके पीछे होनेवाले ज्ञानसे व्यभिचार है । इसका विचार कुछ प्रथम भी कर दिया था। इस कारण तदाकारताको प्रमाण कहनेवाले बौद्ध सन्निकर्ष को क्यों नहीं प्रमाणपनेसे अभीष्ट किया ? तदाकारता और सनिकर्ष दोनोंका फल अधिगति मिल ही जाती हैं।
सत्यपि सन्निकर्षेऽर्थाधिगतेरभावान्न प्रमाणमिति चेत् ।
यदि बौद्ध यों कहें कि सन्निकर्ष तो प्रमाण नहीं हो सकता है। क्योंकि उसमें अन्वयव्यभि - चार है, सन्निकर्ष होते हुये भी अर्थकी अधिगति नहीं हो रही है । इस प्रकार कहनेपर तो हम कहते हैं कि
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सन्निकर्षे यथा सत्यप्यर्थाधिगतिशून्यता ।
सारूप्येपि तथा सेष्टा क्षणभंगादिषु स्वयम् ॥ ३५ ॥
जिस प्रकार सन्निकर्ष के होते हुए भी अर्थज्ञप्तिकी शून्यता देखी जाती है, उसी प्रकार क्षणिकत्व आदि तदाकारता होते हुए भी अर्थज्ञप्तिका वह अभाव स्वयं बौद्धोंने अभीष्ट किया है । अर्थात् -- जैसे वैशेषिकों द्वारा माने गये सन्निकर्ष में अन्वयव्यभिचार आनेसे तुम बौद्ध प्रमाका कारणपना नहीं मानते हो, वैसे ही तुम बौद्धों के माने हुए सारूप्यमें भी अन्वयव्यभिचार आता है । देखिये । स्वलक्षण वस्तुका क्षणिकपना तदात्मक स्वरूप है । अतः स्वलक्षणसे उत्पन्न हुए ज्ञानमें जब स्वलक्षणका आकार पड गया है, तो उससे अभिन्न क्षणिकपनेका भी आकार पड चुका है । ऐसी दशामें क्षणिकपनका आकार होते हुए भी निर्विकल्पक ज्ञानद्वारा क्षणिकत्वकी अधिगति होना बौद्धोंने स्वयं नहीं माना है । किन्तु सत्त्व कृतकत्व, हेतुओंसे उत्पन्न हुये अनुमान द्वारा क्षणिकपनका ज्ञान इष्ट किया है । क्षणिकपना - कल्पितधर्म तो है ही नहीं जिसका कि आकार ज्ञानमें न पडे । कल्पित धर्म माननेपर तो सभी अर्थ परमार्थरूपसे क्षणिक नहीं हो सकेंगे तथा व्यतिरेकव्यभिचार भी होता है । भूत, भविष्यत् तथा अतिदूरवर्त्ती पदार्थोंका आकार न पडते हुये भी बुद्धज्ञान द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों की अधिगति होना इष्ट कर लिया है । सौत्रान्तिकोंने अपने इष्टदेवता सुगतको सर्वज्ञ माना है । यद्यपि जैनोंने भी ज्ञानको साकार माना है । किन्तु यहां आकारका अर्थ विकल्प करना है । प्रतिविम्ब पडना नहीं । आत्माका ज्ञानगुण ही अर्थोकी विकल्पना करता है । दर्शन, सुख, वीर्य,
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