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तत्वार्थ लोकवार्त
साथ कोई विशेष नाता तो नहीं है । ऐसी दशामें एक ही ज्ञानके द्वारा सभी पदार्थोंकी ज्ञप्ति हो जावेगी । इन्द्रिय, मन आदिक तो सभी अर्थोके ज्ञानमें साधारण कारण हैं । इस कारण उस ज्ञानका प्रतिनियम कराने के निमित्त वे नहीं बन सकते हैं । अतः घटज्ञानका घट ही और पटज्ञानका पट ही विषय है। इसका नियम करनेवाली ज्ञानमें पडी हुयी तदाकारता ही है । आचार्य कहते हैं कि यह भी जिस बौद्ध करके कहा जा रहा है, उसके यहाँ संनिकर्ष प्रमाण हो जाय और अधिगति उसका फल हो जावे । क्योंकि उस सन्निकर्षके विना अर्थके साथ ज्ञानका जुडना असम्भव है । बौद्धजन नील स्वलक्षण, पीत स्वलक्षणको ही वस्तुभूत मानते हैं । घट, पट, स्थूल अवयव - ओंको यथार्थ नहीं मानते हैं । अतः नीलका ज्ञान पीतका ज्ञान ऐसा उन्होंने कहा था ।
साकारस्य समानार्थसकलवेदन साधारणत्वात् केनचित्प्रत्यासत्तिविप्रकर्षेऽसिद्धे सकलसमानार्थेन घटनप्रसक्तेः सर्वसमानार्थैकवेदनापत्तेः, तदुत्पत्तेरिंद्रियादिना व्यभिचारानियामकत्वायोगात् ।
बौद्ध ज्ञानद्वारा नियत विषयोंको जाननेमें तदाकारता, तदुत्पत्ति, और तदध्यवसाय ये तीन नियामक हेतु कहे हैं। आचार्य महाराज उनमें दोष दिखाते हैं कि बौद्ध यदि तदाकारतासे "उस विषयको जानने की व्यवस्था करेंगे तो तदाकारताको सम्पूर्ण समान अर्थों के ज्ञान कराने में साधारणपना होने के कारण किसी एक ही विवक्षित पदार्थके साथ निकटपना और दूरपना जब सिद्ध नहीं है तो संपूर्ण ही समान अर्थोके साथ सम्बन्धित हो जानेका प्रसंग हो जानेसे सभी समान का एक ज्ञान हो जानेकी आपत्ति होगी । भावार्थ - मशीन में ढले हुए एक रुपये का छूना या देखनारूप ज्ञान होनेपर उसी सन्के ढले हुये समान मूर्तिवाले एकसे सभी देशान्तरों में फैले या सन्दूक में रक्खे भूमिमें गढे हुये रूपयों का चाक्षुत्र या स्पार्शन हो जाना चाहिये, तैसे ही एक घडेके देख लेने पर उस घटके सदृश सभी घटोंका ज्ञान हो जाना चाहिये, क्योंकि बौद्ध मत अनुसार उनकी ज्ञप्तिका प्रधान कारण तदाकारता तो ज्ञानमें पड चुकी है। समान आकारवाले पदार्थोंके चित्र ( तसवीर) एकसे होते हैं । ईसत्रीय सन् १९२८ में ढले हुये पंचम जार्जकी मूर्तिसे युक्त एक रुपयेकी तसवीर जैसी होगी वही चित्र उस सालके ढले हुये अन्य रुपयोंका भी होगा । फिर एक रुपये को देखकर उस सालकें ढले हुये सदृश सभी देशान्तरोंमें फैले हुये रुपयोंका उसी समय चाक्षुष ज्ञान क्यों नहीं हो जाता है ? इसका उत्तर बौद्ध यदि यों कहें कि हम तदुत्पत्तिको ज्ञान द्वारा नियत व्यवस्था करने में नियामक मानते हैं । अर्थात् - जो ज्ञान जिस पदार्थसे उत्पन्न होगा उसीको जानेगा अन्यको नहीं । सन्मुख रखे हुये एक रुपयेसे उत्पन्न हुआ ज्ञान उस ही रुपयेको जान सकता है। अन्यसदृश रुपयोंको नहीं। क्योंकि वह ज्ञान अन्य समान रुपयोंसे उत्पन्न नहीं हुआ है। ज्ञान अपने उत्पादक कारणरूप विषयको जानता है । " नाकारणं विषयः " जो ज्ञानका कारण नहीं है वह ज्ञानका विषय नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर समान अर्थोके जान
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