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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
सर्वदा अवस्थित रहता है । इस कारण संपूर्ण अनुमिति, उपमिति, शाबोधरूप प्रमितियोंका साधारणरूपसे कारणपना उसको सिद्ध हो रहा है । अतः प्रमाताको असाधारण कारणपना नहीं सम्भवता है। विशिष्ट क्रियाको कर रहा विशेषसमयवर्ती पदार्थ ही करण होता है। क्रियाके अतिरिक्त समयोंमें भी अधिक देरतक ठहररहा तो साधारणकारण हो जाता है । " अतिपरिचयादवज्ञा"। इस प्रकार कहनेपर तो पुनः हम जैन कहेंगे कि तब तो बहुत देर तक ठहरनेवाले होनेसे संयोग आदि संनिकर्ष, और इन्द्रियको भी उस प्रमाका साधारणकारणपना क्यों नहीं सिद्ध होगा ? जो कि उस असाधारण कारणपनेके असम्भव यानी साधारणपनेका निमित्त है । इसपर वैशेषिक यदि कहें कि जब प्रमितिकी उत्पत्तिमें सन्निकर्ष आदिक व्यापार कर रहे हैं, तभी वे उसके कारण माने जाते हैं । अन्य समयोंमे हो रहे कालान्तर स्थायी भी । सन्निकर्ष आदिक तो कारण नहीं हैं। इस प्रकार सन्निकर्ष और इन्द्रियोंमें असाधारणकारणपना बन जाता है। यों वैशिषिकोंके कहनेपर तो हम जैन भी कह देंगे कि तब तो नित्य भी आत्मा जिस समय उस प्रमितिको उत्पन्न करनेमें व्यापार कर रहा है तब ही उस प्रमाका कारण है । अन्य समयोंमें वह नि य भी आत्मा कारण नहीं है । इस ढंगसे सन्निकर्ष आदिके समान आत्मा भी असाधारण कारण हो जाओ। अर्थात्-आत्मा भी प्रमितिका कारण बन बैठेगा । यदि तिस प्रकार होनेपर उस आत्माको अनित्यपनेका प्रसंग होगा इस प्रकार डरकर तुम वैशेषिक कहोगे तो हम जैन कहते हैं कि यह आत्माके अनित्य हो जानेका प्रसंग हमारे यहां कोई दोष नहीं है। उस परिणामी आत्माको सन्निकर्ष आदिके समान कथंचित् अनित्यपना सिद्ध है। हां, सभी प्रकारोंसे किसी आत्मा आदिको नित्यपना माननेपर अर्थक्रिया होनेका विरोध है। इस बातको हम कई बार कहचुके हैं । अर्थात्-प्रमितिमें व्यागर करते समय आत्मा न्यारा है और आगे पीछेका आत्मा निराला है। फिर क्या कारण है कि सन्निकर्ष और इन्द्रियोंको तो करण माना जाय, किन्तु आत्माको करण नहीं माना जाय । हमको कोई विशेष हेतु नियामक नहीं दीख रहा है।
प्रमाणं येन सारूप्यं कथ्यतेधिगतिः फलम् ।
सन्निकर्षः कुतस्तस्य न प्रमाणत्वसंमतः ॥ ३४॥
जिस बौद्धकरके ज्ञानका अर्थके आकार होजानापन" प्रमाण कहा जाता है और अर्थकी अधिगति प्रमाणका फल मानागया है, उसके यहां सन्निकर्ष भी प्रमाणपनेसे क्यों नहीं भले प्रकार मानलिया गया कहना चाहिये । अर्थात् ---दर्पणमें घटके प्रतिबिम्ब पड जानेपर वह घटका आकार माना जाता है, वैसे ही प्रकाशक ज्ञानमें घट, पट, आदिकोंके आकार पड जानेसे वे घट, पट, के ज्ञान कहे जाते हैं, अतः तदाकारता प्रमाण है और अर्थकी अधिगति उसका फल है, यह बौद्धोंका मत है तथा आत्मा, मन, इन्द्रिय, और अर्थ, इन चार तीन या दोके सन्निकर्षसे अर्थज्ञप्ति होना