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तत्वार्थ लोकवार्तिके
प्रत्यय सादृश्य तुल्यता इनसे कहा गया उपमान तो उक्त वाक्योंमें नहीं है। वहां तो गणितशास्त्र के संस्कार या स्वयं पहिले देखे हुये छोटेपन, बडेपन, दूरपन, लघुपन, आदिके उपदेश अथवा अनुभव कार्यकारी हो रहे हैं । ऐसी दशा में तुम्हारे माने हुये उपमानमें उक्त संख्या आदिके ज्ञानोंका अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता है। लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण आदिके विना उक्तज्ञान हो रहे हैं। अतः अनुमानमें गर्भित नहीं कर सकते हो। अतः परिशेषसे शाहज्ञानमें उनका गर्म करना अनिवार्य पंड जायगा । अथवा उपमानके समान स्वतंत्र न्यारे न्यारे प्रमाण विवश होकर मानने पडेंगे, अन्य कोई उपाय नहीं है ।
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ननु चाप्तोपदेशात्प्रतिपाद्यस्य तत्संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपचिरागमफलमेव ततोऽ प्रमाणांतरमिति चेतर्खाप्तोपदिष्टोप मानवाक्यादपि तत्प्रतिपत्तिरागमज्ञानमेवेति नोपमानं श्रुतात्प्रमाणान्तरं ।
नैयायिक अपने पक्षका ही अवधारण करते हुये कह रहे हैं कि यथार्थ वक्ताके उपदेशसे उत्पन्न हुयी शिष्यको वह संज्ञासंज्ञियोंके सम्बन्धी प्रतिपत्ति तो आगमज्ञानका फल ही है । तिस कारण वह न्यारा प्रमाण नहीं है । प्रमाके करणोंको प्रमाणपना कहना ढूंढना चाहिये, प्रमितियोंके प्रमाणपनकी परीक्षा में अवसर खोना अच्छा नहीं है। प्रमाणोंके फल तो अनेक प्रतिपत्तियां हैं। उनको कहांतक प्रमाण माना जा सकता है । जैनोंने मी प्रमाणके फल अज्ञाननिवृधि, हान उपादान, और उपेक्षाको प्रमाणस्वरूप नहीं मानकर अभाव, त्याग, प्रहण, और अनिच्छास्वरूप कार्य का है । देखो, व्याप्तिज्ञान प्रमाण है, और वह्निकी प्रमिति उसका फल है। उस वह्निकी प्रभाको पुनः प्रमाण माननेकी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार नैयायिकोंके कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि आप्तपुरुषद्वारा उपदेश किये गये उपमान वाक्यसे हो रही उस सादृश्य विशिष्ट गौ पा गोविशिष्ट सादृश्य की प्रतिपत्ति भी आगमप्रमाण ही हो जाओ । इस प्रकार श्रुतसे निराका उपमानप्रमाण नहीं हो सका । नैयायिकोंने जो यह कहा था कि प्रमाणके फलमें प्रमाणपनेका अन्वेषण नहीं करना चाहिये । इसपर इमारा यह कहना है कि प्रमाणसे अभिन्न हो रहे फड प्रमाणरूप ही हैं । अज्ञाननिवृत्ति कोई तुच्छ पदार्थ नहीं है। वह प्रमाण स्वरूप ही है । म्याप्तिका ज्ञान व्याप्तिको जाननेमें प्रमाण है । अनिके अनुमानज्ञानकी उत्पत्तिमें व्याप्तिज्ञान निमित्त कारण है । सच पूछो तो अग्निकी अनुमिति हो अनुमान प्रमाण है। धूमज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है । वन्हि और धूमका व्याप्तिज्ञान तो तर्क है, और बन्हिज्ञान अनुमान प्रमाण है। ज्ञान ही प्रमाण हो सकते हैं। इसको हम कह चुके हैं। कोई भी प्रमाणज्ञान चाहे वह किसी पदार्थका फड होय, किन्तु अपने चित्रकी प्रमितिका करण होनेसे अवश्य प्रमाण बन बैठता है । प्रमिति, इप्ति, अनुमिति, आदि से तदात्मक हो रहा वह प्रमाण उपजता है। अतः उपमान वाक्यसे हुयी वह सम्बन्ध प्रतिपति भी आगम प्रमाण होगी, यह विश्वास रखो । फछ कह देनेसे तुम छुट्टी नहीं पा सकते हो।