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तत्वार्थचिन्तामणिः
रहा
हो रहा है । इसी प्रकार घटमें रहनेवाले समवायके साथ चक्षुका संयुक्त विशेषणता सम्बन्ध है । रूपमें रहनेवाले समवाय के साथ संयुक्तसमवेत- विशेषणता है । और रूपत्व जातिमें ठहरे हुये समवाय के साथ चक्षुका संयुक्तसमवेतसमवेतविशेषणता संनिकर्ष वैशेषिकोंने माना है । द्रव्य द्रव्य होनेसे चक्षु और घटका संयोग सम्बन्ध है । चक्षु संयुक्तघट में रूपगुण समवायसे वर्त है । उस समवेतरूप में रूपत्वका समवाय है । रूपत्वमें प्रतियोगिता सम्बन्ध से समवाय विशेषण हो रहा है । प्रकरणप्राप्त कारिकाका यह अर्थ है कि नेत्रके साथ संयुक्त विशेषणता सम्बन्ध करके ज्ञान द्वारा तिस प्रकार जान लेनेपर भी समवाय, स्वरूप, विशेषणता, आदि उत्तरोत्तर बढ रहे सम्बन्धों की वित्ति कैसे करोगे ? जैसे कि संयोग और समवायको सन्निकर्ष द्वारा जानना आवश्यक है । वैसे ही स्वरूपसम्बन्ध, विशेषणतासम्बन्ध, आदिका वैशेषिकोंको आवश्यक हो जायगा । और उनके जाननेका तुम्हारे पास कोई उपाय अनवस्था भी होगी ।
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योग्यतां कांचिदासाद्य संयोगादिरयं यदि । क्षित्यादिवित्तदेव स्यात्तदा सैवास्तु संमता ॥ ३१ ॥ स्वात्मा स्वावृतिविच्छेद विशेषसहितः कचित् । संविदं जनयन्निष्टः प्रमाणमविगानतः ॥ ३२ ॥ शक्तिरिंद्रियमित्येतदनेनैव निरूपितं ।
योग्यताव्यतिरेकेण सर्वथा तदसंभवात् ॥ ३३ ॥
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जानना भी नहीं है ।
संयोग, सयुंक्तसमवाय, आदि संनिकर्षोका पूर्वमें दिये हुये व्यभिचार दोषके निवारणार्थ यदि वैशेषिक यों कहें ये संयोग आदिक किसी विशेष योग्यताको प्राप्त करके पृथ्वी, जल, आदिकी वित्त कराते हैं । आत्मा, आकाश, रसत्व, शद्वत्व, रसाभाव आदिकी योग्यता न होनेसे चक्षु इन्द्रियके द्वारा प्रमा नहीं होने पाती है । तब तो हम जैन कहेंगे कि वह योग्यता ही हम तुम सबको भले प्रकार स्वीकृत हो जाओ। अपना आत्मा ही अपने ज्ञानावरण कर्मोके क्षयोपशम विशेषसे युक्त हो रहा किसी योग्य पदार्थमें ज्ञानको उत्पन्न कराता हुआ अनिंदित मार्गसे प्रमाणभूत इष्ट कर लिया गया है । मीमांसकोंकी शक्तिरूप इन्द्रियोंका भी इस उक्त कथन करके ही निरूपण कर दिया गया समझ लेना । क्योंकि योग्यतासे अतिरिक्त उन शक्तिरूप इन्द्रियोंका सभी प्रकार से असम्भव है । भावार्थ - कितना भी उपाय करो, ज्ञान द्वारा नियत पदार्थको जाननेमें नियामक योग्यताका ही सबको शरण लेना पडेगा । वह योग्यता आत्माकी लब्धिरूप परिणति है । अतः