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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कहते हैं कि तब तो उपमान प्रमाणसे अतिरिक्त वह सम्बन्धकी प्रतिपत्ति ही तुम नैयायिकोंके यहां प्रमाणांतर हो जाओ, यह न्यारा प्रमाणपना दोष तदवस्थ रहा । उस उपमानवाक्यके विना ही उस सम्बन्ध प्रतिपत्तिकी उत्पत्ति हो जाती है। अतः उपमानप्रमाणमें उसका अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता है, जब कि वह उपमानका विषय नहीं हो सकी है। उपमानप्रमाण बननेके लिये वही समर्थ माना गया है, जिसकी उपमानवाक्यका स्मरण करते हुये उत्पत्ति होवे । इसके अतिरिक्त अन्य ज्ञान तो उपमानमें गतार्थ नहीं हो सकते हैं।
आगमत्वं पुनः सिद्धमुपमानं श्रुतं यथा । सिंहासने स्थितो राजेत्यादिशद्वोत्थवेदनं ॥ १२४ ॥
हां, फिर संख्या, स्थूलत्व, आदिके ज्ञानोंको जिस प्रकार आगमपना सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार उपमान प्रमाणको भी श्रुतपना समझो । सिंहासनपर जो बैठा हुआ होय उसको राजा समझना, डेरी ओर छोटे बासनपर बैठे हुयेको मंत्री समझना, इत्यादिक आप्त शब्दोंको सुनकर पुनः राजसभामें जाकर उन शब्दोंके संस्कारसे उत्पन्न हुये उन उन व्यक्तियोंमें राजा, मंत्री, आदिके ज्ञानको जिस प्रकार श्रुतपना है, उसी प्रकार उपमानको भी श्रुतपना सिद्ध है । अर्थान्तरको अभेदविवक्षा अनुसार कतिपय प्रत्यभिज्ञान मतिज्ञान समझे जाते हैं । किन्तु प्रकृत अर्थसे मिन माने जा रहे आर्थान्तरकी प्रतिपत्ति करनेवाले उपमान या प्रत्यभिज्ञान सभी श्रुतज्ञान हैं। ___ प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमान, गौरिव गवय इति ज्ञानं । तथा वैधाद योऽगवयो महिषादिः स न गौरिवेति ज्ञानं । साधर्म्यवैधाभ्यां संज्ञासंझिसम्बन्धप्रतिपतिरुपमानार्थः । अयं स गवयशदवाच्यः पिंड, इति सोऽयं महिषादिरगवयशद्ववाच्य इति वा साधर्म्यवैधोपमानवाक्यादिसंस्कारस्य प्रतिपाद्यस्योपजायते । इति द्वेधोपमानं श्रद्धाप्रमाणान्तरं ये समाचक्षते तेषां यादिसंख्याज्ञानं प्रमाणान्तरं, गणितज्ञसंख्यावाक्याहितसंस्कारस्य प्रतिपाद्यस्य पुनर्यादिषु संख्याविशिष्टद्रव्यदर्शनादेतानि यादीनि तानीति संज्ञासंजिसम्बन्धपतिपत्तिादिसंख्याज्ञानप्रमाणफलमिति प्रतिपत्तव्यं ।
गौतमऋषिके बनाये हुये न्यायसूत्रमें कहा है कि प्रसिद्ध हो रहे पदार्थके साधर्म्यसे अप्रसिद्ध साध्यको साधना उपमान प्रमाण है, जैसे कि गौके सदृश गवय होता है, यह ज्ञान उपमान है। तया प्रसिद्ध पदार्थके विलक्षण धर्मसहितपनेकरके भी अप्रसिद्ध साध्यका साधना उपमान है, जैसे कि जो गौ या गोसदृश गवयसे मिन मैंसा, ऊंट, हाथी आदिक पशु हैं। वे गौके सदृश नहीं है, यह ज्ञान भी उपमान है । ऐसा टीकाकारोंने वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञानका उपसंख्यान किया है कि साधर्म्य और वैधhकरके संज्ञा और संबीके सम्बन्धकी प्रतिपत्ति हो जाना उपमान प्रमाणका प्रयोजन