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तवार्यश्लोकवार्तिके
नोपदेशमपेक्षेत जातु रूपादिविचिवत् । परोपदेशनिर्मुक्तं प्रत्यक्ष हि सतां मतं ॥ १२१ ॥
यदि तुम नैयायिक दो, दश आदि संख्याओंके ज्ञानको अथवा ऊपर नीचेपनके ज्ञानको तथा अतिस्थूलपन, मोटापन, अधिक दूरपन, अल्पपन, लघुपन, निकटवर्तीपन, लम्बापन, गुरुत्व, आदिके सानोंको प्रत्यक्ष प्रमाणरूप मानोगे, तब तो हम जैन कहेंगे कि उक्त कहे हुये ज्ञान कभी भी उपदेशकी अपेक्षा नहीं करेंगे, जैसे कि रूप, रस, आदिके प्रत्यक्षज्ञानोंको अन्यके उपदेशकी अपेक्षा नहीं है । सम्पूर्ण ही सज्जन विद्वानोंके यहां प्रत्यक्षज्ञान नियमसे परोपदेश करके रहित माना गया है। भावार्य-१ पन्द्रह छक्का नब्बे २ उच्च कक्षाके छात्र ऊपर रहते हैं, और नीचली श्रेणीके विधार्थी नीचे रहते हैं, ३ मानली गयी इतनी मोटाईसे अधिक मोटा हो रहा मनुष्य ' या वृक्ष अधिक स्थूल कहा जाता है, ४ यह खेत उस खेतसे अधिक विस्तीर्ण है, ५ यह मार्ग उस मार्गसे अधिक दूर पडता है, ६ यह आम्रफल उस अमरूदसे छोटा है, ७ सोनेसे चांदी हलकी होती है, ८ यह ग्राम उस ग्रामसे निकट है, ९ यह नदी उस कुल्यासे लम्बी है, १० धातुओंमें पारा सबसे भारी है, इत्यादि वृद्धवाक्योंके संस्कारको धारनेवाले पुरुषोंके उत्पन्न हुये ज्ञानोंको यदि प्रत्यक्ष कह दिया जायगा तो इनमें परोपदेशकी आवश्यकता नहीं पडेगी । अन्यप्रतीतियोंका व्यवधान नहीं कर जो साक्षात् विशदवान है, वह प्रत्यक्ष है। किन्तु अन्यज्ञानोंकी या परोपदेशोंकी इन ज्ञानोंमें तो आकांक्षा हो रही है। अतः उक्त ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकते हैं। किन्तु विशेष श्रुतस्वरूप है।
तत्संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपचिरपेक्षते । परोपदेशमध्यक्ष संख्यादिविषयं यदि ॥ १२२ ॥
तदोपमानतः सैतत् प्रमाणान्तरमस्तु वः । . नोपमानार्थता तस्यास्तद्वाक्येन विनोद्भवात् ॥ १२३॥ ___ यदि आप नैयायिक यों कहें कि किसी वनवासी भीलने एक नागरिकको कहा कि गायके समान ही गवय होता है । नागरिक कचित् गायके समान धर्मवाले अर्थको इन्द्रियोंसे देखता हुआ निर्णय करता है कि इस अर्थकी वाचक गवय संज्ञा है और यह रोझ व्यक्ति गवय संज्ञावान् है, यों संज्ञा और संज्ञीके सम्बन्धकी प्रतिपत्ति ही परोपदेशकी अपेक्षा करती है। छत्तीस, प्रेसठि आदिका ज्ञान तो परोपदेशकी अपेक्षा नहीं करता है । अतः संख्या, अधिकस्थूलपना, दूरतरपना इत्यादिको विषय करनेवाला वह ज्ञान प्रत्यक्ष ही है, कोई अतिरिक्त प्रमाण नहीं है । अब आचार्य