________________
ફૂટ
तार्थोकवार्तिके
वेदाध्ययनवाच्यत्वं वेदाध्ययनपूर्वताम् ॥ ४३ ॥ न वेदाध्ययने शक्तं प्रज्ञापयितुमन्यवत् ।
मीमांसक अनुमान बनाते हैं कि सर्व वेदाध्ययन ( पक्ष ) गुरु अध्ययनपूर्वकं ( साध्य ) वेदाध्ययनवाच्यत्वात् ( हेतु ) अधुनाध्ययनवत् ( अन्वयदृष्टांत ) वेदोंका पढना सदासे ही गुरुओंके अध्ययनपूर्वक ही चला आ रहा है । क्योंकि उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदिसे सहित होकर वैदिक मंत्रों का उच्चारणपूर्वक अध्ययन गुरुवर्यके शब्दोंसे ही कहा जाता है, जैसे कि वर्तमान कालमें परम्परासे चले आये गुरुओंसे ही वेदका अध्ययन हो रहा है। अर्थात्-जैसे मल्हार, भैरवी, सोहनी आदि रागोंका उच्चारण पूर्वगुरुओंको जो प्राप्त हुआ था, वह उसके पहिलेके गुरुओंकी आम्नायसे चला आया हुआ ही आजतक धारारूपसे बह रहा है। श्लोक, ग्रन्थ या लेने देनेके खातेको तो लिखकर भी हम स्वतंत्रतासे पढ सकते हैं । किन्तु स्वरोंका आरोह अवरोह या भिन्न भिन्नरूपसे अलौकिक उच्चारण करना तो गुरुपर्वक्रमसे ही प्राप्त हो सकता है। बहुतसे वाच्यका हम उच्चारण कर सकते हैं । किन्तु अनेक संकेत अक्षरविन्यास करके भी इम उनको पूर्णरूपसे लिख नहीं सकते हैं । गवैया लोगोंका भिन्न भिन्न रागोंका गाना यदि लिख लिया जाय तो सभी बढिया गवैया हो जायेंगे । रोने या इंसने अथवा खांसीके शद्व तथा मृदंग घनगर्जन, तोता, घोडा, आदिके शब्द लेखनी: मषी, द्वारा लिखे नहीं जा सकते हैं। हां, दूसरोंसे सुनकर उनका कुछ अनुकरण मुखसे किया जा सकता है। यही दशा वैदिक शब्दोंकी है । वेदका अध्ययन गुरुओंकी परिपाटीसे ही प्राप्त होता है । अतः वैदिक शब्द अनादि अनिधन है। इस प्रकार मीमांसकों के कहने पर हम जैन कहते हैं कि वेदाध्ययन वाच्यपना हेतु वेदाध्ययन पक्षमें वेदाध्ययन पूर्वकपनेको बढ़िया' समझाने के लिये समर्थ नहीं है । जैसे कि अन्य हेतु वेदाध्ययनपूर्वकपना साधनेके लिये समर्थ नहीं हैं । अथवा अन्य नैयायिक आदिकोंके यहां वेदका अध्ययन अनादिकालसे. आरहा नहीं माना जा रहा है ।
1
1
यथा हिरण्यगर्भः सोऽध्येता वेदस्य साध्यते ॥ ४४ ॥ युगादो प्रथमस्तद्वबुद्धादिः स्वागमस्य च । साक्षात्कृत्यागमस्यार्थं वक्ता कर्तागमस्य चेत् ॥ ४५ ॥ अमिरित्यभिरित्यादेर्वक्ता कर्ता तु तादृशः ।
जिस प्रकार मीमांसकोंद्वारा युगकी आदि में वेदका सबसे प्रथम अध्ययन करनेवाला ब्रह्मा साधा जाता है, उसी प्रकार बुद्ध, कपिल, आदिक भी युगकी आदिमें अपने अपने आगमके अन्ययन करनेवाले माने जा रहे हैं। फिर वेदको ही अपौरुषेय माननेमें कौन ऐसा रहस्य