________________
तत्रार्थचिन्तामणिः
जगतोऽकर्तृताप्येवं परेषामिति चेन्न वै ॥ ४० ॥ कर्तुः स्मरणहेतुस्तत्सिद्धो तैश्च प्रयुज्यते ।
स्मरण नहीं
1
यदि मीमांसकजनों के यहां वेदको नित्य, अपौरुषेय सिद्ध करनेके लिये कर्त्ताका होना हेतु इष्ट किया जायगा, तब तो वेदका अपौरुषेयपना अपने घर में ही मान लिया गया, समझा जायगा, जब कि वेदके कर्ताका स्मरण हो रहा है । यों तो कोई पुराने खण्डहर कुंआ आदिको भी अपौरुषेय कह देगा। क्योंकि उसको भी अपने घरमें खडेराके कर्त्ताका स्मरण नहीं हो रहा है । इस प्रकार तो दूसरे वैशेषिक, नैयायिक, यौगोंके यहां जगत्का अकर्तृकपना भी बन बैठेगा, जो कि उनको निश्चयसे इष्ट नहीं हो सकता है। कारण कि उस जगत्कर्त्ता, ईश्वरकी सिद्धि करने में उन वैशेषिक आदिकोंकरके कर्त्ताका स्मरण होना ज्ञापक हेतु भले प्रकार प्रयुक्त किया जाता है । अपने अपने घरकी गढी हुई बातें कहें जाओ । मीमांसक वैशेषिकोंके जगत्कर्ताके 1 स्मरणको मानते ही नहीं है ।
महत्त्वं तु न वेदस्य प्रतिवाद्यागमात् स्थितम् ॥ ४१ ॥ येनाशक्यक्रियत्वस्य साधनं तचव स्मृतिः ।
६१७
मीमांसक कहते हैं कि वेद बहुत बडा प्रन्थ है, कोई भी विद्वान् इतने महान् प्रन्थको बना नहीं सकता है। इसपर हम जैन कहते हैं कि वेदोंका बडप्पन तो जैन, बौद्ध आदि प्रतिवादियोंके आगमसे प्रतिष्ठित नहीं हो रहा है। जिससे कि नहीं किया जासकनापन उस हेतुकी तुम्हारे यहां स्मृति ठीक मानी जाय ।
पुरुषार्थोपयोगित्वं विवादाध्यासितं कथं ॥ ४२ ॥ विशेषणतया हेतोः प्रयोक्तुं युज्यते सतां ।
वेद नित्यत्वको सिद्ध करनेमें दिये गये हेतुका विशेषण सम्पूर्ण पुरुषोंके प्रयोजन साधने में उपयोगीपना दिया है । सम्भवतः इसका यह अभिप्राय होवे कि विशेषसमयमें उपजा पुरुष अनादि कालीन जीवोंके प्रयोजनोपयोगी उपदेशको नहीं दे सकता है। आचार्य कहते हैं कि वह विशेषण तो विवादग्रस्त हो रहा है । अतः हेतुका विशेषणस्वरूप हो करके प्रयुक्त करनेके लिये सज्जन पुरुषोंके सन्मुख किस प्रकार युक्त हो सकता है ? अश्वमेध, नरमेध आदि यज्ञोंद्वारा मला जीवोंका प्रयोजन कहीं सघ सकता है ! अर्थात् — नहीं। ऐसे अनेक प्रकरण वेदमें पाये जाते हैं जो कि लोक और समीचीन शास्त्र अथवा राजनीति, पंचायत नीतिसे बिरुद्ध पडते हैं। और यों थोडे बहुत पुरुषार्थके उपयोगी तो कपोलकल्पित उपन्यास भी हो जाते हैं। एतावता कोई वेदों में महत्त्वकी सिद्धि नहीं ।
78