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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
___ यदि मीमांसक उस व्यंजकका शब्दके किसी ही अंशमें अभिव्यक्ति करनेके निमित्त व्यापार करना इष्ट करेंगे, तब तो वह शब्द स्वतः ही छोटे छोटे देशोंको धारनेवाला हो गया निरंश नहीं रहा अथवा मीमांसक अखण्ड एक वर्णके अभिव्यंजक कण्ठ तालुओंसे अकार, इकार भागकी अभिव्यक्ति होना स्वीकार करेंगे, उकार ऋकारकी नहीं, तो भी शद्बमें स्वतः देश अंशोंका धारण करना प्राप्त हो गया । एक ही वर्णके इकार, अकार, उकार आदि नानास्वरूप स्वीकार करेंगे, तो उस शब्दका या उसके व्यंजकोंका अनेक रूपपना कैसे जाना जा सकेगा ! उत्तर दो। यदि मीमांसक यह उत्तर कहें कि श्रोताओंको अपने अपने अभीष्ट हो रहे शब्दोंका श्रवण होता देखा जाता है । अतः वर्ण और उनके व्यंजक कारण अनेकरूप सिद्ध हो जाते हैं, इसपर तो हम तुम्हारे मतमें अन्योन्याश्रय दोष उठाते हैं कि व्यंजकोंका अनेकपना सिद्ध हो जानेपर तो विशिष्ट अनेक वचनोंका श्रवण होना सिद्ध होय और फिर विशेष विशिष्ट वचनोंका श्रवण प्रसिद्ध होनेपर तो उन व्यंजकोंका नानापन सिद्ध होय । यदि मीमांसक यों कहें कि विशिष्टवचनोंके सुननेको हम अनेक व्यंजकोंके अधीन मानकर नहीं साधते हैं, किन्तु यह विशिष्ट वचनोंका श्रवण तो सभी जीवोंको प्रत्यक्षप्रमाणसे सिद्ध है । अतः अन्योन्याश्रय दोष लागू नहीं होता है । इसपर तो हम जैन कहेंगे कि प्रत्यक्षप्रसिद्ध होनेके कारण ही वचनोंका मतिपूर्वकपना सिद्ध है, यह क्यों नहीं सरलतासे मान लिया जाता है ! ।
ननु ज्ञाननिमित्तत्वं वाचामुच्चारणस्य नः ॥ ३४ ॥ सिद्धं नापूर्णरूपेण प्रादुर्भावः कदाचन । कर्तुरस्मरणं तासां तादृशीनां विशेषतः ॥ ३५॥ पुरुषार्थोपयोगित्वभाजामपि महात्मनां । नैवं सर्वनृणां कर्तुः स्मृतेरपतिषिद्धितः ॥ ३६ ॥ तत्कारणं हि काणादाः स्मरंति चतुराननं ।
जैनाः कालासुरं बौद्धा स्वाष्टकात्सकलाः सदा ॥ ३७ ।।
मीमांसक ही अपने पक्षका अवधारण करते जा रहे हैं कि " दर्शनस्य परार्थत्वात् " दर्शन यानी अभिधान तो दूसरोंके लिये हुआ करता है । अतः हमारे यहां वचनोंका उच्चारण करना दूसरोंके ज्ञानोंका निमित्तकारण माना गया है। अपूर्व नवीनस्वरूपसे बुद्धिद्वारा शब्दोंका कभी भी उत्पाद होना सिद्ध नहीं है । क्योंकि तिस प्रकारके उन अपौरुषेय वचनोंके बनानेवाले कर्ताका विशेषरूपसे स्मरण नहीं होता है । आत्माके पुरुषार्थ करनेमें उपयोगसहितपनेको धारनेवाले महात्मा