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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
या " या सर्व सर्वत्र विद्यते " कह दिया जाय । सदके घट, पट, जीव, सुखस्वरूप हो जानेपर या घट आदिके सर्वत्र व्यापक हो जानेपर भी अदृष्टके वशसे ही नियत व्यक्तिमें शद्वका ज्ञान तो हो ही जायगा । अतः अभाव पदार्थको नहीं मानकर सम्पूर्ण भावोंको सर्व आत्मक क्यों नहीं मानलिया जाय । यदि अपने अपने द्रव्य, भाव, अनुसार सभी पदार्थ अपने अपने स्वरूपमें स्थित हो रहे माने जायंगे तो शब्द, घट, सभी पदार्थ अपने परिमित देश और नियत कालमें तिष्ठ रहे निर्णीत करने चाहिये । बुभुक्षाके अनुसार ही पेट पसारना उचित है। अधिक भक्षी या सर्वमक्षीकी दुर्गति अवश्यम्भाविनी है।
देशतस्तदभिव्यक्ती सांशता न विरुष्यते । व्यंजकायचशद्वानामभिन्ने सकलश्रुतिः ॥ ३०॥
यदि दूसरा विकल्प उठाकर मीमांसक उस शब्दकी साकल्येन अभिव्यक्ति नहीं मानकर एक देशसे अभिव्यक्ति होना मानेंगे, तब उक्त दोषका निवारण तो हो जायगा, किन्तु व्यंग्य शब्द और व्यंजक वायु आदिमें अंशसहितपना बन बैठेगा, कोई विरोध नहीं आता है। अर्थात्मृदंगके सौ दो सौ हाथ तक निकट देशमें शब्द प्रकट हो जायगा, और अन्य सैकड़ों कोसोंमें भरा हुआ वह शब्द अप्रकट बना रहेगा। ऐसी दशामें शब्दके अनेक अंश हुये जाते है, जो कि मीमांसकोंने माने नहीं हैं। हां, हम स्याद्वादियोंके यहां शद्वको सांश मानने में कोई विरोध नहीं आता है । व्यंजक वायुओंके अधीन होकर वर्त रहे शब्दोंको अभिन्न माननेपर तो सम्पूर्ण वर्णोकी युगपद् ( एकदम ) श्रुति हो जायगी । एक विवक्षित देशमें सम्पूर्ण अकार, इकार, ककार आदि वर्णोके प्रकट हो जानेसे मिला हुआ विचिरपिचिर संकुल श्रवण होगा, जो कि कमी मेले, पेंठ आदि अवसरोंमें कुछ दूरसे सुननेपर भले ही होय, किन्तु अन्य समयोंमें न्यारे न्यारे शुद्ध वर्णीकी श्रुति होती रहती है। यह वर्गों के अनित्य, अव्यापक, माननेपर ही घटित होता है।
सस्य क्वचिदभिव्यक्ती व्यापारे देशभाक् स्वतः । नानारूपे तु नानात्वं कुतस्तस्यावगम्यताम् ॥ ३१ ॥ खाभिप्रेताभिलापस्य श्रुतेरन्योन्यसंश्रयः॥ सिद्ध व्यंजकनानात्वे विशिष्टवचसः श्रुतिः ॥ ३२॥ प्रसिद्धायां पुनस्तस्यां तत्ससिद्धिर्हि ते मते । यदि प्रत्यक्षसिद्धेयं विशिष्टवचसः श्रुतिः ॥ ३३॥ शेमुषीपूर्वतासिद्धिर्वाचां किं नानुमन्यते। .