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________________ ६१२ तस्वार्थश्लोकवार्तिके भिन्न और कथंचित् अभिन्न स्वरूप है, तब तो हम कहेंगे कि तिस ही कारण तुम्हारे यहां अभिव्यक्ति के समान शद्बको भी किसी अपेक्षासे बुद्धिपूर्वकपना प्राप्त हुआ । शद्ब और अभिव्यक्तिका जिस अंशमें अभेद है, उसी अंशमें बुद्धिसे जैसे अभिव्यक्ति उपजती है, अमेद सम्बन्ध हो जानेके कारण वैसे ही मतिज्ञानसे शब्द भी उपज बैठेगा । अतः शद्व चाहे वैदिक हों अथवा लौकिक हों मंत्र हों, कोई भी होंय, वे अनित्य हैं । शद्व वस्तुतः पुद्गलकी पर्याय हैं। इसको हम साधचुके हैं। व्यक्तिर्वर्णस्य संस्कारः श्रोत्रस्याथोभयस्य वा । तद्बुद्धितावृतिच्छेदः साप्येतेनैव दूषिता ॥ २५ ॥ जिस प्रकार भस्म या मिट्टी से रगड देनेपर कांसे, पीतल के भांडोंका संस्काररूप अभिव्यक्ति हो जाती है, उसी प्रकार मीमांसक यदि अकार, गकार, आदि वर्णोंके संस्कार हो जानेको शकी अभिव्यक्ति कहेंगे ? या श्रोत्र इन्द्रियके अतिशयाधानरूप संस्कारको शद्वकी अभिव्यक्ति मानेंगे ? अथवा वर्ण और श्रोत्र दोनों के संस्कारयुक्त हो जानेको शद्वकी अभिव्यक्ति कहेंगे ? जो कि संस्कार उस शब्द के ज्ञान हो जानेका आवरण करनेवाले वायु या कर्म आदिका अपनयनरूप विच्छेदस्वरूप माना जावेगा । आचार्य कह रहे हैं कि वह संस्कार और अभिव्यक्ति भी इस उक्त कथनसे दूषित करदी गयी हैं । शद्वको कूटस्थ नित्य माननेपर और श्रोत्रको नित्य आकाशस्वरूप स्वीकार करनेपर उनका आवरण करनेवाला कोई नहीं सम्भवता हैं । ग्रन्थके प्रारम्भ में दूसरी, तीसरी वार्तिकों के व्याख्यान अवसर पर इसका अच्छा विचार किया जा चुका है । विशेषाधानमप्यस्य नाभिव्यक्तिर्विभाव्यते । नित्यस्यातिशयोत्पत्तिविरोधात्स्वात्मनाशवत् ॥ २६ ॥ कलशादेरभिव्यक्तिर्दीपादेः परिणामिनः । प्रसिद्धेति न सर्वत्र दोषोयमनुषज्यते ॥ २७ ॥ पदार्थोंके संस्कार दो प्रकारके होते हैं। सुवर्ण, पीतल आदिके या रांयीसे शुष्क चमडेका संस्कार तो उनके ऊपर लगे हुये मल, आवरण, दोषोंका दूरीकरण कर देनेसे हो जाते हैं । किन्तु दाल में जीरा, हींगडेका छोंक देनेसे या वस्त्रमें केतकी, इत्र आदिकी सुवासनायें कर देनेसे, सडक पर पानी छिडक देनेसे, अथवा बालोंमें पुष्पतेल डालनेसे, जो संस्कार किये जाते हैं, वे संस्कारित पदार्थोंमें कुछ अतिशयोका धरदेना रूप हैं । पहिली कारिकामें शद्वके श्रावणप्रत्यक्षोंको रोकनेवाले वायु आदिक आवारकोंका निवारण किया जाना - स्वरूप अभिव्यक्तिका विचार कर दिया गया है । अब यदि मीमांसक इस शद्ध के विशेष अतिशयोंका आधान करदेना- रूप अभिव्यक्ति
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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