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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः शद्वादर्थांतरं व्यक्तिः शद्वस्य कथमुच्यते । संबंधाच्चेति सम्बन्धः स्वभाव इति सैकता ॥ २२ ॥ यदि मीमांसक शब्दकी उस अभिव्यक्तिको शब्द से न्यारा पदार्थ स्वीकार करेंगे, तब तो वह शब्दका प्रकट होना भला शब्दका है, यह कैसे कहा जा सकता है ? भिन्न हो रहा महिषका सींग तो घोडेका नहीं कहा जा सकता है। विन्ध्यपर्वतसे सर्वथा मिन पडा हुआ सह्य पर्वत तो विन्ध्याचलका है ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता है । इसपर यदि मीमांसक यों कहें कि शब्द और अभिव्यक्तिका सम्बन्ध हो जानेसे वह अभिव्यक्ति शब्दकी कह दी जायगी, जैसे कि भेद होते हुए भी देवदत्तकी टोपी ऐसा व्यवहार हो जाता है। इस प्रकार मीमांसकों के कहनेपर तो हम जैन पूछेंगे कि शब्द और अभिव्यक्तिका वह सम्बन्ध भला स्वका भावस्वरूप स्वभाव ही माना जायगा, और इस प्रकार माननेपर तो फिर वही शब्द और अभिव्यक्तिका एकपना प्राप्त हो जाता है । अतः अभिव्यक्ति के समान वैदिकशब्द मी ज्ञानसे उत्पन्न हुये कहे जायंगे । शद्रव्यक्तेरभिन्नैक संबंधात्मत्वतो न किम् । संबंधस्यापि तद्भेदेऽनवस्था केन वार्यते ? ॥ २३ ॥ ६११ शब्दके उसकी प्रकटता के साथ होनेवाले सम्बन्धको यदि प्रतियोगी अनुयोगी दोनों पदार्थों से अभिन्न माना जायगा, तब तो अभिन्न एक सम्बन्ध आत्मकपना हो जानेसे क्यों नहीं शब्द और अभिव्यक्ति दोनों एक हो जायेंगे ? हथेलीस्वरूप सम्बन्धीके साथ अभेद हो जानेपर मध्यमा और अनामिका अंगुलियोंका भी कथंचित् अमेद हो जाता है। एक बडी टंकीमेंसे सैकडों नलों में वह रहा पानी एकमएक समझा जाता है । यदि शब्द और व्यक्तिके बीचमें पडे हुये प्रतियोगी, अनुयोगी दोनोंसे मेद माना जायगा तो अनवस्था दोष किसके द्वारा है ? अर्थात् – भिन्नसम्बन्धको जोडनेके लिये अन्य सम्बन्धकी आवश्यकता होगी और सम्बन्धि मन पडे हुये अन्य सम्बन्धको भी " उनका यह है ", इस प्रकार व्यवहार करानेके लिये चौथे, पांचवें आदि सम्बन्धोंकी आकांक्षा बढती ही जायगी, यह अनवस्था दोष होगा । इसका निवारण मीमांसकोंके बूते नहीं हो सकता है । सम्बन्धका भी उन निवारा जा सकता भिन्नाभिन्नात्मकत्वे तु संबंधस्य ततस्तव । शस्य बुद्धिपूर्वत्वं व्यक्तेरिव कथंचन ॥ २४ ॥ यदि स्याद्वादनीतिका अनुकरण करते हुये मीमांसक यों कहें कि शब्द और उसकी अभिव्यक्तिके मध्य में पड़ा हुआ सम्बन्ध तो प्रतियोगी अभिव्यक्ति और अनुयोगी शद्वसे कथंचित्
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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