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तस्वार्थचिन्तामणिः
६०३ पूर्वशद्वप्रयोगस्य व्यवधानेपि दर्शनात् । न साक्षान्मतिपूर्वस्य श्रुतस्येष्टस्य बाधनम् ॥ ६॥ . लिंगादिवचनश्रोत्रमतिपत्तिदर्थगात् ।
श्रुताच्छूतमिति सिद्धं लिंग्यादिविषयं विदाम् ॥ ७॥ ___ कुछ दो एक पदार्थोका व्यवधान हो जानेपर भी पूर्वशद्वका प्रयोग होना देखा जाता है । जैसे कि मथुरासे पूर्व पटना है, अथवा धारणाके पूर्वमें अवग्रहज्ञान रहता है, कुशूलके पूर्व शिवक है, आदि । तभी तो अव्यवहित पूर्वमें अव्यवहितपद सार्थक हो सकता है । इस कारण जिस श्रुतमें साक्षातरूपसे मतिज्ञान निमित्त हो रहा है, अथवा श्रुतजन्य श्रुतज्ञानमें परम्परासे मतिज्ञान निमित्त कारण हो रहा है, उस इष्ट श्रुतके संग्रह या उत्पत्तिकी कोई बाधा प्राप्त नहीं है । " मतिपूर्व " कहनेसे साक्षात् मतिपूर्वक और परम्परामतिपूर्वक दोनोंका ग्रहण हो जाता है। विद्वानोंके यहां यह बात प्रसिद्ध है कि धूमका चाक्षुष मतिज्ञान होकर उस मतिज्ञानके निमित्तसे हुआ न्यारी अग्निका ज्ञान तो साक्षात् मतिपूर्वक श्रुतज्ञान है । और परार्थानुमान करते समय किसी आप्त पुरुषके धूमशब्दका कानोंसे मतिज्ञान कर उसके वाच्य अर्थ धूआंका पहिला श्रुतज्ञान अव्यवहित मतिज्ञानपूर्वक उठाया जाता है। पीछे प्रथम श्रुतज्ञानसे उपजा दूसरा अग्नि, आदिका श्रुतज्ञान तो परम्परा मतिज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ कहा जाता है । लिंग आदिके वचनको पूर्वमें श्रोत्र मतिज्ञानसे जानकर उसके वाच्य अर्थको विषयी होकर प्राप्त हो रहे पहिले श्रुतज्ञानसे साध्य आदिको विषय करनेवाला दूसरा श्रुतज्ञान विद्वानोंके यहां इस प्रकार प्रसिद्ध हो रहा है । उस दूसरे श्रुतज्ञानसे अनुमेयपन धर्मको जाननेवाला तीसरा श्रुतज्ञान भी उत्पन्न हो सकता है। हेतुमालासे जहां मूलसाध्यको साधा जाता वहां दस, पन्द्रह भी श्रुतज्ञान उत्तरोत्तर होते जाते हैं। उन सबके पहिले होनेवाला मतिज्ञान उनका परम्परया निमित्तकारण हो रहा है। तभी तो कार्यके अव्यवहित पूर्वकालमें रहनेवाला समर्थ कारण पद नहीं देकर आचार्य महाराजने पूर्वपद प्रयुक्त किया है । सूत्रकार तो वादी प्रतिवादी सबके अन्तर्यामी हैं।
नन्वेवं केवलज्ञानपूर्वकं भगवदईत्मभाषितं द्रव्यश्रुतं विरुध्यत इति मन्यमानं प्रत्याह ।
पुनः दूसरी शंका है कि इस प्रकार भी कहनेपर जैनोंके यहां भगवान् अर्हन्तदेवद्वारा अच्छे भाषण किये गये शब्द आत्मक द्रव्यश्रुतको केवलज्ञानपूर्वकपना जो माना जा रहा है, वह विरुद्ध पड जायगा । क्योंकि आप तो श्रुतके पूर्वमें मतिज्ञान या श्रुतज्ञान ही स्वीकार करते हैं। किन्तु देवाधिदेव भगवान्के शब्दमय द्रव्यश्रुतके पूर्वमें तो केवलज्ञान है । व्यवहित या अव्यवहितरूपसे मतिज्ञान वहां पूर्ववर्ती नहीं है । अतः फिर अव्याप्ति हुयी । इस प्रकार मान रहे शंकाकारके प्रति भाचार्य महाराज स्पष्ट समाधान कहते हैं।