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तत्वार्थ लोकवार्तिके
सम्यगित्यधिकारात्तु श्रुताभासनिवर्तनम् । तस्याप्रामाण्यविच्छेदः प्रमाणपदवृत्तिः ॥ ४ ॥ परोक्षाविष्कृतेस्तस्य प्रत्यक्षत्वनिराक्रिया । नावध्यादिनिमित्तत्वं मतिपूर्वमिति श्रुतेः ॥ ५ ॥
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" तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं " इस सूत्र से सम्यक् इस पदका अधिकार चला आ है 1 इस कारण से तो वेद, व्यासोक्त पुराण आदिक शास्त्रसदृश दीख रहे श्रुताभासोंकी निवृत्ति हो जाती है । और " तत्प्रमाणे " सूत्रसे प्रमाणपदकी अनुवृत्ति हो जानेके कारण उस श्रुतके अप्रमाणपनेका विच्छेद कर दिया जाता है । आदिके दो ज्ञान परोक्ष हैं । इस प्रकार पूर्वमें ही श्रुतको परोक्षपना प्रकट कर देने से उस श्रुतके प्रत्यक्षपनका निराकरण हो जाता है। इसी प्रकार " मतिपूर्व " यों कण्ठोक्क सूत्रका श्रवण होनेसे श्रुतमें अवधि, मन:पर्यय आदि निमित्तोंसे उत्पन्न होनापन नहीं सभ पाता है । अतः मतिपूर्व, सम्यक्, परोक्षं, प्रमाणं श्रुतं इस वाक्यार्थद्वारा अनिष्टनिवृत्ति होते हुये श्रुतका स्वरूप निरूपण हो जाता है ।
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ननित्यत्वं द्रव्यश्रुतस्य भावश्रुतस्य वा न नित्यनिमित्तत्वमिति सामर्थ्यादवसीयते मतिपूर्वत्ववचनादवध्याद्यानिमित्तत्ववत् ।
शद्वस्वरूप द्रव्यश्रुतको अथवा लब्धि उपयोगस्वरूप भावश्रुतको नित्यपना तो नहीं है । तथा व्यापक, कूटस्थ नित्य, शद्वोंस्वरूप निमित्तसे उत्पन्न होना भी श्रुतोंको प्राप्त होता नहीं है 1 यह बात सूत्रकी सामर्थ्य से ही अर्थापत्तिद्वारा निश्चित कर ली जाती है। क्योंकि सूत्रकारका श्रुतज्ञानको मतिपूर्वकपने का वचन है । जैसे कि अवधि आदिक निमित्तोंका नैमित्तिकपना श्रुतमें नहीं है । अर्थात् – प्रवाहरूपसे द्रव्यश्रुत या भावश्रुत भलें ही नित्य रहें, किन्तु व्यक्तिरूपसे श्रुत अनित्य है । और अनित्य मतिज्ञानसे उपजता है । केवलज्ञान से भी पुरुषार्थद्वारा परम्परया शद्वश्रुत उत्पन्न हो जाता है । अनित्य शद्वोंसे भावश्रुत हो जाता है । अवधि आदि तो श्रुतके निमित्त नहीं हैं ।
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श्रुतनिमित्तत्वं श्रुतस्यैवं बाध्येतति न शंकनीयं । कुतः १
कोई शंका करता है कि इस प्रकार मतिज्ञानको ही श्रुतका निमित्त मान लेनेपर तो फिर ज्ञानके पीछे उस श्रुतज्ञानको निमित्त मानकर उपजनेवाले द्रव्यश्रुत या भावश्रुतकी उत्पत्ति में REET आती है । लक्षण अव्याप्त हुआ जाता है । आचार्य कहते हैं कि ऐसी तो शंका नहीं करना चाहिये । कारण कि ( क्योंकि ) ।
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