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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
ननु शब्दस्याद्रव्यत्वेप्य सर्वगतद्रव्याश्रयत्वे कथं सकृत्सर्वत्रोपलंभः १ यथा गंधादेः, समानपरिणामभृतां पुद्गलानां स्वकारणवशात् समंततो विसर्पणात् ।
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हुये भी आप जैन
समय में सर्वत्र कोसोंतक
मीमांसक प्रश्न उठाते हैं कि शब्दको स्वतंत्रद्रव्यपना नहीं मानते व्यापक द्रव्यके आश्रय रहनेवालापन यदि मानोगे तो बताओ कि एक ही चारो ओर शब्दका उपलंभ कैसे होगा ? बताओ । डेल या घडा एक ही होता हुआ एक बारमें सर्वत्र नहीं दीख सकता है और शब्दको व्यापक, नित्य, माननेपर सबको एक बारमें उसका प्रत्यक्ष हो सकता है, जो कि दीख रहा है। इसका उत्तर हमारी ओरसे यही है कि जैसे गन्ध, स्पर्श, आदिका अद्रव्य होते हुए और असर्वगत द्रव्यके आश्रित होते हुए मी कुछ दूरतक सब ओर उपलम्भ हो जाता है । बात यह है कि एकसा सुगन्धित या उष्णनामके समान परिणामको धारनेवाले पंक्तिबद्ध पुगलोंका अपने अपने कारणोंके वशसे दशों दिशाओं में सब ओरसे फैलना हो जाता है। तीव्र सुगन्ध, दुर्गन्धवाले पदार्थोंके निकटवर्ती
कोंकी वैसी ही सुगन्ध, दुर्गन्धरूप परिणति दूरतक होती जाती है । कुछ परिणतियां तो इतनी सूक्ष्म है कि चक्रवर्ती, देव या ऋद्धिधारी पुरुषोंकी भी इन्द्रियां उनको नहीं जानपाती हैं। यही ब्यवस्था शद्व में भी लगा लेना । वक्ता के मुखसे शद्वके निकलते ही शद्बपरिणतियोग्य पुद्गल स्कन्धोंका सब ओर लहरोंके सदृश शद्बनामक परिणाम हो जाता है। जिस जीवको जितने दूरके शद्वको सुनने की योग्यता प्राप्त है, वह अपने क्षयोपशम अनुसार उन शब्दोंको सुन लेता है । और दूरतक फैली हुयीं शेष परिणतियां व्यर्थ जाती हैं। यों अनन्तपरिणाम हमारे तुम्हारे काम नहीं आनेकी अपेक्षा व्यर्थ सारिखे दीखते हैं । एतावता उन परिणतियोंका अभाव नहीं कहा जा सकता है । भोज्यपदार्थोंमें मध्यवर्ती अनेक रसोंके तारतम्यको लिये हुये सांतर उपजते रहते हैं । उन आागे पीछेके रसोंका स्वाद हमको नहीं आता है । न सही, किन्तु उनकी अक्षुण्णसत्ताको कोई अनाहूत नहीं कर सकता है । मोटे प्रासमें जो जिव्हाको छू गया स्वल्प पतला पत्तर है, उसका तो रस चखाजाता है। शेष बहुभाग विना आस्वादित हुये यों ही गटक लिया जाता है। क्या करें । सुन्दर लेखनी (नेजेकी कलम ) के ऊपर भागमें सर्वत्र पाता बनानेकी कठिनशक्ति है । किन्तु शतांश भागको छोडकर शेष सर्व कठिन बहुभाग व्यर्थ जाते हैं। सर्व बीजोंकी या मनुष्योंकी सभी सन्तान उत्पादक - शक्तियां सफल नहीं हो पाती हैं। छोटेसे शद्वकी भी परिणति हजारों कोस दूरतक पुद्गलोंको यथाक्रमसे तमतरता लिये हुये शद्वमय कर देती है । किन्तु परिमित देशमें बर्त रहा ही शब्द सुनाई पडता है । इसमें अन्तरंग, बहिरंग कारण अनेक उपयोगी हो रहे हैं । हो, निमित्त मिळा देनेपर दूरतक भी सुनाई पड सकता है ।
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सावहितानां विसर्पणं कथं न तेषामिति चेत् यथा गंधद्रव्यस्कंधानां तथा परि