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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ततोन्यत्रापि सूक्ष्मद्रव्याश्रिता गंधादयः प्रतीयंते इति चेत् शब्दोपि ताल्वादिभ्योऽन्यत्र सूक्ष्मपुद्गलाश्रित एव श्रृंयत इति कथमिव स्वतंत्रः । तदाश्रयद्रव्यस्य चक्षुषोपलब्धिः स्पादिति चेत् गंधाद्याश्रयस्य किं न स्यात् ? मूक्ष्मत्वादिति चेत् तत एव शब्दाश्रय द्रव्यस्यापि न चक्षुषोपलब्धिरिति सर्व समं पश्यामः । ततो यदि गंधादीनां शश्वदस्वतंत्रत्वामहत्वायुपेतत्वाभावादारव्यातो न द्रव्यत्वं तदा शब्दस्यापि न तत् ।।
फिर भी मीमांसक यों बोले कि उस गंधवाले या स्पर्शवान् द्रव्यके क्षेत्रसे अन्य स्थानोंमें भी फैले हुये सूक्ष्मद्रव्यके आश्रित होकर वर्त रहे ही गन्ध, स्पर्श, आदिक प्रतीत हो रहे हैं। तिस प्रकार कहनेपर तो हम स्याद्वादी कहेंगे कि यों तो शब्द भी तालु, कण्ठ, मुख, ढोल, तोप आदिकसे अन्य प्रदेशोंमें फैले हुये सूक्ष्मपुद्गलोंके आश्रित हो रहे ही सुने जा रहे हैं । यही जैन सिद्धान्त भी हैं। इस प्रकार भला वह शब्द स्वतंत्र कैसा कहा जा सकता है ? अर्थात् गन्धके समान शब्द भी छोटे छोटे पुद्गलस्कन्धोंके आश्रित होकर रहता हुआ ही दूरतक सुनाई पडता है । अन्यथा नहीं। इसपर मीमांसक यदि यों कटाक्ष करें कि उस शब्दके आश्रय हो रहे पौद्गलिकद्रव्यकी चक्षुइन्द्रियके द्वारा उपलब्धि हो जानी चाहिये । अर्थात् जैसे पुद्गलनिर्मित घट, पुस्तक, आदि पदार्थ चक्षुसे दीखते हैं, उसी प्रकार पौद्गलिकशद्वाश्रय भी आंखोंसे दीख जाना चाहिये । इस प्रकार मीमांसकों के द्वारा चोद्य उठानेपर तो हम भी उनके ऊपर प्रश्न उठा सकते हैं कि दूरतक फैल रहे गन्ध, रस, आदिके आश्रय हो रहे पृथ्वी आदि पदार्थोकी भी चक्षुद्वारा उपलब्धि क्यों नहीं हो जाती है ! गन्धवाले या रसवाले पदार्थमें रूप तो अवश्य है ही, फिर खुली इत्रकी शीशीकी दूरतक फैली हुयी सुगन्धका आश्रय पृथ्वीद्रव्य भला चक्षुसे क्यों नहीं दीख जाता है ! बताओ । यदि आप मीमांसक इसका उत्तर यों देवें कि गन्धके आश्रयद्रव्य सूक्ष्म हैं। अतः स्थूलदर्शी जीवकी चक्षुसे उनकी बप्ति नहीं हो पाती है । ऐसा कहनेपर तो हम भी उत्तर कर देखेंगे कि शब्दके आश्रय पुद्गलद्रव्यकी भी सूक्ष्म होनेके कारण चक्षुके द्वारा उपलब्धि नहीं हो पाती है। इस प्रकार शब्द और गन्ध आदिमें किये गये सभी आक्षेप और समाधान हमारे तुम्हारे यहां समाम हैं, ऐसा हम देख रहे हैं । तिस कारण यदि गन्ध आदिकोंके “ सदा अस्वतंत्रपना" इस ज्ञापक हेतुकरके महत्त्व, इस्वत्व आदिसे सहितपनेका अभाव साधा जायगा और इस कारण गुणरहित हो जानेसे उन गन्ध आदिकोंको द्रव्यपना नहीं बन सकेगा, किन्तु गुणपना सिद्ध होगा, तब तो हम दैगंबर कहेंगे कि शब्दको भी सदा अस्वतंत्र नहीं होनेके कारण मुख्य महत्त्व आदिसे सहितपना नहीं बन सकेगा। अत एव वह शब्द भी द्रव्य नहीं हो सकेगा। हमारे आपादन किये गये गन्ध और तुम्हारे शब्दतत्त्वमें कोई अन्तर नहीं दीखता है । शब्दके वाक्यस्फोट, पदस्पोट, वर्णस्फोटके समान गन्धगुणके भी कई गन्धस्फोट माने जा सकते हैं। वस्तुतः विचार करनेपर गन्धके समान शब्द मी पौद्गलिक. तत्त्व सिद्ध होगा। प्रत्यक्षसिद्ध हो रहे पुद्गलनिर्मित शब्दमें अधिक सम्वाद बढाना व्यर्थ है।