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तत्वार्थचिन्तामणिः
कि गन्ध, स्पर्श आदिकोंमें महत्त्व आदि गुणोंके रहनेका उपचारनिमित्त क्या है ! बताओ । इसपर मीमांसक यदि यों उत्तर देंवे कि अपने आधारभूत द्रव्योंके महत्त्वसे आधेय हो रहे गन्ध आदिमें भी महत्त्व उपचरित हो जाता है। इस प्रकार कहनेपर तो हम स्याद्वादी भी उत्तर दे देंवेगे कि सदमें भी अपने आधार पुद्गलके महत्त्वसे महत्त्व उपचरित कर लिया जावेगा । आधारके धर्म भाधेयमें आ जाते हैं।
मुख्यमहत्त्वादेरसंभवः श्रद्धे किमवगतः । स्वयापि गंधादौ स किमु निश्चितः। गंपादयो न मुख्यमहस्वायुपेताः शश्वदखतंत्रत्वादभाववदित्यतोनुमानात्तदसंभवो निश्चित इति चेत्, तत एव शवपि स निश्चीयतां ।
मीमांसक पूंछते हैं कि शब्दमें उपचरित महत्त्व माना जा रहा है । सो क्या मुख्य महत्त्व, स्थूलत्व, घोरत्व, तारत्व आदिका असंभव शब्दमें आप जैनोंने जान लिया है ! जिससे कि आप महत्त्व आदिकको मुख्यरूपसे नहीं मानकर उपचारसे मान रहे हैं ! बताओ। इस प्रकार मीमांसकोंके कहनेपर हम जैन भी पूछते हैं कि तुम मीमांसकोंने भी क्या गंध आदिकोंमें वह मुख्य महत्त्व भादिकका अभाव क्या निश्चित कर लिया है। जिससे कि गन्ध, स्पर्श, आदिमें उपचरित महत्त्व मादि गुण गढे जा रहे हैं । इसपर मीमांसक यदि यों अनुमान बनाकर गन्ध आदिमें मुख्य महत्वका अभाव सिद्ध करें कि गन्ध आदिक गुण ( पक्ष ) मुख्यरूपसे महत्त्व, हस्खत्व, आदि गुणोंसे युक्त नहीं हैं (साध्य ), सर्वदा स्वतंत्र नहीं होनेसे ( हेतु ) जैसे कि अभाव पदार्थ ( अन्वयदृष्टान्त ), इस अनुमानसे पराधीन हो रहे गन्ध आदिकोंमें उन मुख्य महत्व आदिकोंका असंभव निश्चित कर लिया गया है । इस प्रकार मीमांसकोंके कहनेपर तो हम जैन कह देंगे कि तिस ही कारण शब्दमें भी मुख्यरूपसे महत्त्व आदिकोंका वह असम्भव निर्णीत कर लिया गया समझो । शब्द भी सर्वदा परतंत्र होनेके कारण अभावके समान होता हुआ मुख्य महत्त्व आदिको नहीं धारसकता है। शब्द अन्य द्रव्योंके आश्रित रहता है। उस द्रव्यके गुण एकार्य समवायसे शद्बमें भी आरोपित कर लिये जावें । उस मुख्य महत्वके माननेकी क्या आवश्यकता पड़ी है ! मुख्य महत्वका प्रयोजन उपचरित महत्त्वसे सध जायेगा।
शरे तदसिद्धेर्न तनिश्चयः सर्वदा वस्य खतंत्रस्योपसम्धेरिति चेत् गन्धादावपि तत एव तदसिद्धः । कुतस्तु तमिश्यः तस्य सित्यादिद्रव्यतंत्रत्वेन प्रतीतेरस्वतंत्रत्वसिद्धिरिति चेत् शवस्यापि वक्तृमेर्यादिद्रव्यतंत्रस्योपलब्धेरखतंत्रत्वसिद्धरस्तु ।
- मीमांसक कहते हैं कि सदा परतंत्रपना हेतु तो शद्वमें नहीं रहता है। अतः पक्षमें नहीं रहनेवाले उस स्वरूपासिद्ध हेतुसे महत्त्व आदि गुणोंका मुख्यरूपसे नहीं रहना शब्दमें निश्चय करने योग्य नहीं है। क्योंकि सदा ही स्वतंत्र होकर रहनेवाले उस शकी. उपलब्धि हो रही है। इस