________________
૮૬
'तस्वार्थ लोकवार्तिके
यानीं हम मीमांसकोंने शब्दको भिन्न द्रव्यपनेसे स्वीकार कर लिया है। अतः वैशेषिक करके न्यारा सिद्धान्त मान लेनेपर हमारे ऊपर कोई दोष नहीं आता है । गन्धको पृथ्वीका गुण या शब्दको आकाशके गुण माननेवाले वैशेषिकोंके यहां भले ही कोई दोष आता होय, हमें क्या ? तिस प्रकार मीमांसक के कहने पर तो हम स्याद्वादी कह देंगे कि यों तो गन्ध भी एक भिन्नद्रव्य स्वीकार कर लिया जाय कोई दोष नहीं आता है। प्रमाणकी सामर्थ्यसे आगये पदार्थका परिहार केवल स्वेच्छापूर्वक निषेध करदेनेसे ही नहीं किया जा सकता है। इसपर मीमांसक यदि यों कहें कि यों तो स्पर्श, रस आदिकोंको भी न्यारा न्यारा द्रव्यपना हो जानेका प्रसंग होगा । इस प्रकार मीमांसकके कहने पर तो हम स्याद्वादी कहते हैं किं वे स्पर्श आदिक भी न्यारे न्यारे द्रव्य हो जाओ, कोई क्षति नहीं है । गुण और द्रव्यका कथंचित् तादात्म्य है । अतः द्रव्यके स्वरूप तो गुणों में भी लागू हो सकते हैं । पुद्गलके गुण भी मूर्त कहे जाते हैं।
निर्गुणत्वात्तेषामद्रव्यत्वमिति चेत्, तत एव शुद्धस्य द्रव्यत्वं माभूत् महस्वादि गुणाश्रयत्वाच्छद्वे द्रव्यत्वमिति चेत्तत एव गन्धस्पर्शादीनां द्रव्यत्वमस्तु । तेषूपचरितमहखादय इति चेत् शद्वेप्युपचरिताः संतु । कुतः शब्दे तदुपचार इति चेत् गंधादिषु कुतः ? स्वाश्रयमहत्त्वादिति चेत् तत एव शद्वेपि ।
मीमांसक कहते हैं कि गुणोंमें पुनः दूसरे गुण नहीं रहते हैं। अतः गुणरहितपना होनेके कारण उन स्पर्श, रस आदि गुणोंको द्रव्यपना नहीं घटित हो पाता है। इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तिस ही कारणसे शद्वको भी द्रव्यपना मत होओ। शद्व भी तो वैशेषिकोंके यहां रूप, रस आदिके समान गुण माना गया है। अन्य गुणोंका आधार नहीं होनेसे वह भी द्रव्य नहीं हो सकता है। यदि तुम शद्वको महत्व, स्थूलत्व, आदि गुणोंका आश्रयपना हो जानेसे शद्व द्रव्यपना मानोगे तब तो हम कहेंगे कि तिस ही कारण गन्ध, स्पर्श आदिकों को भी द्रव्यपना हो जाओ। शद्वके समान गन्ध, उष्णस्पर्श आदि भी कुछ दूरतक स्थूल होकर महान् फैले ये प्रतीत होते हैं। जो गुणवान् हैं वे द्रव्य होने चाहिये । इसपर मीमांसक कहते हैं कि उन गन्ध, उष्णस्पर्श आदिकों में तो उपचारसे प्राप्त हुये महत्व, स्थूलत्व आदि गुण कल्पित कर लिये हैं । वस्तुतः उष्णद्रव्य या गन्धद्रव्य ही महान् या स्थूल हैं। उनकी स्थूलता, महत्ता ही समवेतत्व या एकार्थसमवाय सम्बन्धसे गुणमें आरोपित कर ली जाती है। इस प्रकार मीमांसकके कहनेपर तो हम जैन बोलेंगे कि शद्धमें भी महत्त्व आदिक गुण वस्तुतः नहीं माने जावें, उपचारसे आरोपित कर लिये गये महत्व आदिक गुण शद्वमें रहें। इसपर मीमांसक यदि यों पूंछे कि शद्वमें किस हेतुसे उन महत्व आदिकोंका उपचार किया जायगा ! बताओ। अर्थात् — पुरुषमें यष्टिका या बालकमें अग्निका अथवा वीरपुरुषमें सिंहका उपचार तो निमितोंसे किया जाता है। उसके उपचार करनेका निमित्त मका क्या है ! इस प्रकार पूंछनपर तो हम जैन भी
समान यहां शहमें मीमांसकोंसे पूछते हैं