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तत्त्वावचिन्तामणिः
नहीं होता है। मोटरकारकी लालटेनोंका प्रकाश कुछ देरमें दूरतक फैलता है। यों त्रैराशिक लगानेपर चन्द्रमातक नेत्रकिरणोंके जानेमें अधिक समय लगेगा । उन्मीलन करते ही झट चन्द्रमाको नहीं देख सकोगे । किन्तु आंख खोलते झट सन्मुख चन्द्रमा देख लिया जाता है ।
तयोश्च क्रमतो ज्ञानं यदि स्यात्ते मनोद्वयं । नान्यथैकस्य मनसस्तदधिष्ठित्यसंभवात् ॥ ६१ ॥
आप वैशेषिक यदि उन पर्वत और चन्द्रमाका ज्ञान क्रमसे होता हुआ कहें तब तो तुम्हारे यहां दो मन अवश्य हो जायंगे । अर्थात्-जितने ही कालमें कुछ नयनकिरणे पर्वततक पहुंचती हैं। उतने ही कालमें अन्य किरणें चन्द्रमातक पहुंच जाती हैं । जैनोंने भी तो एक परमाणुका मन्दगतिसे एक प्रदेशतक गमन एक समयमें माना है, और शीघ्र गतिसे चौदह राजूतक परमाणु एक समयमें चली जाती मानी है । इसपर हम जैन उन वैशेषिकोंसे कहेंगे कि यों दो मन तुमको मानने पड़ेंगे। अन्यथा यानी दो मनको माने विना दोनोंका ज्ञान नहीं हो सकेगा। कारण कि छोटेसे एक मनकी उन दोनोंके ऊपर अधिष्ठिति होना असम्भव है । चक्षुःकिरणोंकी क्रमसे प्राप्ति माननेपर भी दो मन इन्द्रियोंका मानना आवश्यक पड जायगा । किन्तु वैशेषिकोंने प्रत्येक आत्माके लिये एक एक ही मन नियत हो रहा अभीष्ट किया है।
विकीर्णानेकनेत्रांशुराशेरप्राप्यकारिणः । मनसोधिष्ठितौ कायस्यैकदेशेपि तिष्ठतः ॥ ६२ ॥ सहाक्षपंचकस्यैतत्किं नाधिश्ायकं मतं । यतो न क्रमतोभीष्टं रूपादिज्ञानपंचकम् ॥ ६३ ॥ तथा च युगपज्ज्ञानानुत्पत्त्रप्रसिद्धितः।
साध्ये मनसि लिंगत्वं न स्यादिति मनः कुतः ॥ ६४ ॥
वैशेषिक कहते हैं कि मन इन्द्रिय तो अप्राप्यकारी है । अतः शरीरके एक देशमें मी ठहर रहे. अप्राप्यकारी मनका फैली हुयीं अनेक नेत्रकिरणोंकी राशिके उपर अधिष्ठातृत्व होना . संभव जाता है । इसपर तो हम जैन कहेंगे कि खस्सा कचौडी या महोवेके सप्रतिष्ठित पान खानेपर एक साय उपयुक्त हो रही पांच इन्द्रियोंका अधिष्ठापक यह मन क्यों नहीं मान लिया जाता है। जिससे कि क्रमसे अभीष्ट किये गये रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द इनके पांच ज्ञान एक साथ नहीं हो सके। 'वर्षात् अप्राप्यकारी मनकी एक समयमें अनेक पदार्थोके ऊपर अधिष्ठिति माननेपर एक साथ पांचों