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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
चाक्षुषत्व, रासनत्व आदि असिद्ध हेतुओंसे अनित्यपनकी सिद्धि नहीं हो पाती है । जब कि चक्षुमें रश्मियां सिद्ध नहीं हुयीं तो काच आदिकसे अंतरित अर्थका प्रकाशपमा रश्मियोंद्वारा उसको प्राप्तकर नहीं बना । ऐसी दशामें चक्षुका प्राप्यकारीपना खण्डित हो जाता है। । तदेवं तैजसरवादित्यस्य हेतोरसिद्धत्वान चक्षुषि रश्मिवरवसिद्धिनिबंधनत्वं यतस्तस्य रश्मयोर्यप्रकाशनशक्तयः स्युः सतामपि तेषां बृहत्तरगिरिपरिच्छेदनमयुक्तं मनसोधिष्ठाने सर्वथेत्याह।
तिस कारण इस प्रकार तैजसत्वात् ऐसे इस हेतुकी असिद्धता हो जानेसे चक्षुमें उस तैजसत्वको ज्ञापककारण मानकर किरणसहितपनेकी सिद्धि नहीं हो सकी। अथवा इस तेजसत्व हेतुको चक्षुमें किरणसहितपनकी सिद्धिका कारणपना नहीं है, जिससे कि उस चक्षुकी रश्मियां अर्थको प्रकाशनेकी शक्तिघाली हो सकें । दूसरी बात यह है कि अस्तु संतोष न्याय अनुसार चक्षुमें - किरणोंका सताव भी मान लिया जाय तो मी उन रश्मियों के द्वारा चक्षुकरके अधिक बड़े पर्वतकी ज्ञप्ति करना अयुक्त पडेगा । भला छोटीसी चक्षुओंकी किरणें कोसों दूरवर्ती लम्बे, चौडे, महान् , पर्वत बराबर फैलकर कैसे प्रकाश करा सकती हैं । धतूरेके फूल समान आदिमें छोटी होकर भी आगे आगे बढती हुयी नेत्रकिरणे महान् पर्वतोंका भी प्रकाश करा देती हैं, ऐसी प्रत्यक्षप्रमाणविरुद्ध, कठिन, गुरु, कल्पना करनेकी अपेक्षासे तो चक्षुके अप्राप्यकारी मानने में प्रमाणोपपन लाघव है । तथा वैशेषिकोंद्वारा माने गये अधिष्ठाता अणु मनकरके चक्षुओंका अधिष्ठान यानी अधिकृतपना माननेपर तो सभी प्रकारोंसे महान् पर्वतकी परिच्छिति सर्वथा नहीं हो सकती है। इसी बातको ग्रन्थकार वार्तिकद्वारा विशद कहते हैं।
संतोपि रश्मयो नेत्रे मनसाधिष्ठिता यदि । विज्ञानहेतवोर्थेषु प्राप्तेष्वेवेति मन्यते ॥ ५४॥ मनसोणुत्वतश्चक्षुर्मयूखेष्वनाधिष्ठितः। भिन्नदेशेषु भूयस्त्वपरमाणुवदेकशः॥ ५५॥ महीयसो महीध्रस्य परिच्छिचिर्न युज्यते । क्रमेणाधिष्ठितौ तस्य तदंशेष्वेव संविदः ॥ ५६ ॥
तुम वैशेषिकोंके कथन अनुसार चक्षुमें रश्मियां विद्यमान भी मान ली जाय तो ये मन इन्द्रियसे अधिष्ठित हो रहीं यदि अपनेसे सम्बन्धको प्राप्त हो रहे ही अर्थोंमें विज्ञानकी उत्पादक