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वार्थचिन्तामणिः
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न चेदमप्रसिद्धमित्याह ।
विषय के साथ नहीं चुपकर ज्ञान करादेनापन यह अप्राप्यकारित्व मला मनमें अप्रसिद्ध नहीं है। अर्थात् प्रसिद्ध ही है । इस बातको आचार्य महाराज कहते हैं ।
मनसोऽप्राप्यकारित्वं नाप्रसिद्धं प्रवादिनाम् । क्वान्यथातीतदूरादिपदार्थग्रहणं ततः ॥ १५ ॥
बडे अच्छे ढंग के साथ वाद करनेवाले नैयायिक, मीमांसक आदि मतावलम्बियों के यहां मन इन्द्रियका अप्राप्यकारीपना अप्रसिद्ध नहीं है । अन्यथा यानी अप्राप्यकारीपन माने विना भला कहां उस मनसे अतीत कालके या दूर देशवत अथवा भविष्यकालके पदार्थोंका ग्रहण हो सकेगा ? अर्थात् - मनको प्राप्यकारी माननेपर भूत, भविष्य, दूर अतिदूरवत्ती पदार्थोका ज्ञान नहीं हो सकेगा, किन्तु होता है। अतः मन अप्राप्यकारी सिद्ध है ।
न ह्यतीतादयो दूरस्थार्था मनसा प्राप्यकारिणा विषयीकर्तुं शक्या इति सर्वैः प्रवादिभिरप्राप्यकारि तदंगीकर्तव्यमन्वथातीतदूरादिवस्तुपरिच्छित्तेरनुपपत्तेः । ततो न पक्षाव्यापको हेतुः स्पृष्टानवग्रहादिति पक्षीकृते चक्षुषि भावात् ।
अतीत, चिरभूत, भविष्य, चिरभविष्य आदि कालोंमें वर्तनेवाले 'अथवा दूर देशमें स्थित हो रहे अर्थ तो मनको प्राप्यकारी माननेपर उस प्राप्यकारी मनके द्वारा विषय नहीं किये जा सकते हैं। क्योंकि जब वे पदार्थ वर्तमान काल, देशमें विद्यमान ही नहीं हैं, तो उनके साथ मनका सम्बन्ध कथमपि नहीं हो सकता है। इस कारण सभी प्रवादी विद्वानों करके वह मन इन्द्रिय अप्राप्यकारी अंगीकार करनी चाहिये अन्यथा यानी अप्राप्यकारी माने विना दूसरे प्रकारोंसे प्राप्यकारी माननेपर अतीतकाल, दूरदेश, आदिमें वर्त रहे पदार्थोंकी परिच्छित्ति होना नहीं बन सकता है । तिस कारण 19 स्पृष्टानवग्रहात् यह हेतु पक्षाव्यापक नहीं है । क्योंकि वैशेषिकोंके यहां अप्राध्यकारित्व साधनेके लिये पक्ष नहीं बनायी गयी किन्तु जैनोंके यहां पक्ष कर ली गयी चक्षुमें पूर्णरूपसे विद्यमान रहता है ।
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नाप्यनैकांतिको विरुद्धो वा प्राप्यकारिणि विपक्षे स्पर्शनादाव संभवादित्यतो हेतोर्भवत्येव साध्यसिद्धिः ।
यह स्पृष्टानवग्रह हेतु अनैकान्तिक (व्यभिचारी ) अथवा विरुद्धहेत्वाभास भी नहीं है । क्योंकि अप्राप्यकारीपन सांध्यके अभावको निश्चय करके रखनेवाले स्पर्शन, रसना इन्द्रिय आदि विपक्ष के एक देश या पूरे चार इन्द्रियां स्वरूप विपक्ष में हेतु नहीं सम्भवता है। इस प्रकार इस स्पृष्टानव मह निर्दोष हेतुसे अप्राप्त अर्थके परिच्छेदीपन साध्यकी सिद्धि हो ही जाती है।
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