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________________ ५.३६ तत्वार्थ लोकवार्तिके पक्षाव्यापकोपि न भवतीत्याह । 1 यह स्पृष्टानवग्रह हेतु अपने पक्ष में अव्यापक भी नहीं है । अर्थात् — पक्षके पूरे भागों में व्याप जाता है । जो हेतु पूरे पक्षमें नहीं व्यापता है, उसको भागासिद्ध हेत्वाभास कहते हैं । जैसे शब्द और घट ( पक्ष ) अनित्य हैं ( साध्य ) श्रवण इन्द्रियकरके ग्राह्य होनेसे ( हेतु ) । यह श्रावणत्व हेतु पक्ष के एकदेश शद्वमें तो रह जाता है । किन्तु पक्षके अन्य एकदेश घटमें नहीं रह पाता है । यद्यपि हेतुका पक्षमें रहना आवश्यक गुण नहीं है। फिर भी जिस हेतुका पक्षमें वर्तना कहा जा रहा है, उसका पक्षके एक देशमें ठहरना दोष है। " पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन त्वाभाववान् पक्षो यस्य स हेतुः भागासिद्धः " । प्रकरणप्राप्त यह स्पृष्टाप्रकाशकत्व हेतु भागासिद्ध हेत्वाभास नहीं है। इसी बातको आचार्य महाराज कारिकाद्वारा कहते हैं । पक्षाव्यापकता हेतोर्मनस्यप्राप्यकारिणि । विरहादिति मंतव्यं नास्यापक्षत्वयोग्यतः ॥ १४ ॥ अप्रव्यकारी है । रहता है । अति वैशेषिक मान बैठे हैं कि जैनोंके यहां चक्षुके समान मन इन्द्रिय भी तो अतः अतिनिकट वर्तरछे पदार्थका अवग्रह नहीं करना यह हेतु मनमें नहीं समीप हृदयमें पीडा सुख होनेपर मन उनको प्रत्यक्ष जाम लेता है, विचार भी कर लेता है 1 अतः मन इन्द्रियमें हेतुका विरह होनेसे स्पृष्ट अर्थ अप्रकाशकपना हेतु भागासिद्ध है। पूरे पक्षमें नहीं व्यापरहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिये। क्योंकि इस मनको यहां अनुमान में पक्षपनेकी योग्यता नहीं मानी गयी है । अर्थात् अकेला चक्षुही पक्ष है । उसमें स्पृष्टानवग्रह हेतु व्यापजाता है। मनको अप्राप्यकारीपना अन्य हेतुसे साधलिया जावेगा । शरीरके हृदयदेशसे अतिरिक्त प्रदेशोंमें सुख, दुःख, आदिका अवग्रह करानेवाला होनेसे अथवा भूत, भविष्य या दूरवर्ती, पदार्थोंका विचार करनेवाला होनेसे मन अप्राप्यकारी है। 1 चक्षुरेव ात्र पक्षीकृतं न पुनर्मनस्तस्याप्राप्यकारित्वेन प्रसिद्धस्वात् स्वयमप्रसिद्धस्य साध्यत्वेन व्यवस्थापनात् । इस प्रकरणगत अनुमानमें अकेला चक्षु ही पहिले पक्ष नहीं होता हुआ अब पक्ष बनाया गया है, किन्तु फिर मनको पक्ष नहीं किया गया है। क्योंकि उस मनकी समीके यहां अप्राध्यकारीपन करके प्रसिद्धि हो रही है । नैयायिक वैशेषिकोंने भी मनको प्रथमसे ही अप्राप्यकारी स्वीकृत कर रखा है। प्रसिद्धको साध्यकोटिपर नहीं लाते हैं। स्वयं अप्रसिद्ध हो रहेको साध्यपनसे व्यवस्थापित किया गया है। " अप्रसिद्धं साध्यम् " ऐसा ऋषिवचन है ।
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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