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स्वार्थचिन्तामणिः
दिन केवल जल ही पीता है । अथवा जलके साथ पान शद्ब तो अच्छा लगता है । किन्तु भक्षण शब्द कुछ खटकता है । अतः आचार्य महाराजका अप् भक्षशद्व से यह अभिप्राय भी ध्वनित होता है कि थोडा खाकर उसके सहारे पानी पलिना जलभक्षण है । किसी मनुष्यने प्रातः काल केवल लेऊ ही किया, पीछे दिनभर कुछ नहीं खाया। उसके लिये जलभक्षणका ही नियम व्यवहार में कहते हैं ( जलखावा जलखाई आछी ) उत्तर थोडा खाकर जल पी लेने या दूध, ठंडाई
कहा जाता है । बंगाल में कलेऊ करनेको जल खाना प्रान्त में भी सकलपारे, निकुती, गूझा, पेडा, आदिको आदि पीनेको जलपान कहते हैं ।
ईहादयः पुनस्तस्य न स्युः स्पष्टार्थगोचराः । नियमेनेति सामर्थ्यादुक्तमत्र प्रतीयते ॥ ३ ॥
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उस अव्यक्त पदार्थ के फिर ईहा आदिक अनुमानपर्यन्त मतिज्ञान नहीं हो पाते हैं । क्योंकि ईहा आदिक ज्ञान व्यक्तरूपसे स्पष्ट हो रहे अर्थको विषय करनेवाले हैं । इस प्रकार नियम करके सूत्रकी सामर्थ्य से कह दिया गया अर्थ यहां प्रतीत हो जाता है । अर्थात् - अव्यक्तके ईहा आदि ज्ञान नहीं होते हैं । स्मरण आदि ज्ञान भी नहीं होते हैं। यह सूत्र में कण्ठोक्त नहीं कहा गया है । फिर भी नियम करनेकी सामर्थ्यसे अर्थापत्या लब्ध हो जाता है। छोटेसे सूत्रमें कितना प्रमेय भरा जा सकता है ? कोटिशः धन्यवाद है । उन महर्षियोंको जिन्होंने कि गागर में सागर न्याय अनुसार एक सूत्ररूप थम्मेपर असंख्यखनोंवाले प्रासादरूप अपरिमित प्रमेयको लाद दिया है।
नन्वर्थावग्रहो यद्वक्षतः स्पष्टगोचरः ।
तद्वत् किं नाभिमन्येत व्यंजनावग्रहोप्यसौ ॥ ४ ॥ क्षयोपशमभेदस्य तादृशोऽसंभवादिह
अस्पष्टात्मक सामान्यविषयत्वव्यवस्थितम् ॥ ५ ॥
यहां शंका है कि जिस प्रकार इन्द्रियोंसे स्पष्ट अर्थको विषय करनेवाला अर्थावग्रह होता है, उसके समान वह व्यंजनावग्रह भी स्पष्ट विषय करनेवाला भला क्यों नहीं माना जाता है ? बताओ । इन्द्रियोंसे जन्य तो यह भी है। अब आचार्य उत्तर कहते हैं कि यहां अव्यक्त अर्थका व्यंजनावग्रह करते समय तिस प्रकारके स्पष्ट जाननेवाले विशेष क्षयोपशमका असम्भव है । इस कारण व्यंजनाव ग्रहका अस्पष्टस्वरूप सामान्य पदार्थको ही विषय करनापन व्यवस्थित किया गया है । अर्थावग्रह या व्यंजनावग्रह करते समय भले ही सामान्य विशेष आत्मक अर्थ वहका वही एकता है । फिर भी क्षयोपशम के अधीन ज्ञानोंकी प्रवृत्ति होनेके कारण व्यंजनावग्रह द्वारा अव्यक्त शद्वादिके समुदायका