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तस्वार्थ श्लोकवार्तिके
व्यंजनस्यावग्रहः ॥ १८ ॥
अव्यक्त पदार्थका अवग्रह ही होता है, ईहा, अवाय, धारण, स्मरण प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान नामके मतिज्ञान ये अव्यक्त अर्थ में नहीं प्रवर्तते हैं ।
नारब्धव्यमिदं पूर्वसूत्रेणैव सिद्धत्वात् इत्यारेकायामाह ।
कोई शंका करता है कि श्री उमास्वामी महाराजको यह सूत्र तो नहीं बनाना चाहिये । क्योंकि पहिलेके " अर्थस्य " सूत्रकरके ही इस ,, " व्यंजनस्यावग्रहः सूत्रका प्रमेय सिद्ध हो चुका है। इस प्रकार शिष्यकी शंका होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य वार्त्तिक द्वारा उत्तर कहते हैं ।
नियमार्थमिदं सूत्रं व्यंजनेत्यादि दर्शितम् ।
सिद्धे हि विधिरारभ्यो नियमाय मनीषिभिः ॥ १ ॥
यह "" व्यंजनास्यावग्रहः "" इस प्रकार कहा गया सूत्र तो नियम करनेके लिये दिखलाया गया है । कारण कि सिद्ध हो जानेपर पुनः आरम्भ की गयी विधि तो नियम करनेके लिये विचारशाली विद्वानों करके मानी गयी है । " सिद्धे सत्यारम्भो नियमाय " | व्यंजन अर्थका अवग्रह हो जाना यद्यपि पूर्वसूत्र से ही सिद्ध था किन्तु यहां यह दिखलाना है कि अव्यक्त वस्तुका अवग्रह ही होता है । जैसे कि आज अष्टमी के दिन जिनदत्तने जल पीया है । यहां जलको तो जिनदत्त प्रतिदिन पीता है । किन्तु अष्टमी के दिन जल ही पीया है । अन्य दुग्ध, मेवा, अन्न नहीं खाया है । यह नियम कर दिया जाता है। कण्ठोक्त किये विना वह नियम नहीं हो सकता था ।
किं पुनर्व्यजनमित्याह ।
श्रीमान् पूज्य गुरुजी महाराज तो फिर आप यह बता दो कि व्यंजनका क्या अर्थ है ? इस प्रकार विनीत शिष्यकी जिज्ञासा प्रकट होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य सप्रमोद होकर उत्तर कहते हैं । अव्यक्तमत्र शद्वादिजातं व्यंजनमिष्यते । तस्यावग्रह एवेति नियमो भक्षवद्गतः ॥ २ ॥
इस अवसर पर अस्फुट हो रहा शद्व, स्पर्श, रस, गंध, इनका अथवा स्पर्शवान् पुद्गल, रसवन् पुद्गल, आदिका समुदाय ही व्यंजन इष्ट किया गया है । उस व्यंजनका अवग्रह ही होता है । इस प्रकारका नियम जलभक्षणके समान जान लिया गया है । अर्थात् जैसे कोई अनुपवास करनेवाला जल खाता है, इसका अभिप्राय यह है कि वह अन्न, दुग्ध, मिष्टान्न, नहीं खाकर उस