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तत्त्वार्थश्लोकनार्तिके
एवमर्थस्य धर्माणा बहादीतरभेदिनाम् ।
अवग्रहादयः सिद्धं तन्मतिज्ञानमीरितम् ॥ ५॥
इस प्रकार व्यवस्थित हो रहे अर्थके धर्म बहु आदिक और अल्प आदिक बारह भेदवाळे हैं। उन धर्मोके अवग्रह आदिक और स्मृति आदिक ज्ञान होते हैं । तिस कारण युक्तियोंसे सिद्ध हो चुका मतिज्ञान समझा दिया गया है, या कहा जा चुका है।
न हि धर्मी धर्मेभ्योऽन्य एव यतः संबंधासिद्धिरनुपकारात तदुपकारे वा कार्यकारणभावापत्तेस्तयोर्धर्मधर्मिभावाभावोग्निधूमवत् । धर्मिणि धर्माणां वृत्तौ च सर्वात्मना प्रत्येकं धर्मिबहुत्वापत्तिः एकदेशेन सावयवत्वं पुनस्तेभ्योवयवेभ्यो भेदे स एव पर्यनुयोगोनवस्था च, प्रकारांतरेण वृत्तावदृष्टपरिकल्पनमित्यादिदोषोपनिपातः स्यात् । __स्याद्वादियोंके यहां अपने निजधर्मोसे सर्वथा मिन ही धर्मी नहीं माना गया है, जिससे कि वस्वामिन्यवहारके कारण षष्ठीसम्बन्धकी असिद्धि हो जाय । अर्थात्-धर्म धर्मीके सर्वथा भेद होनेपर इस आम्र फलके ये मीठापन, पीलापन आदि धर्म हैं, और इन मीठापन, पालापन धर्मोका यह आम्रफल धर्मी है । इस प्रकार नियतसम्बन्धका व्यवहार असिद्ध हो जायगा । भेदवादी नैयायिकोंके यहां धर्म और धर्मीका परस्परमें उपकार नहीं होनेसे उन धर्मधर्मियोंके सम्बन्धकी सिद्धि नहीं हो पाती है। जैसे कि मेद होते हुये भी गुरु और शिष्य या पिता और पुत्रमें परस्पर उपकार हो जानेसे गुरुशिष्य भाव या जन्यजनक भाव सम्बन्ध सध जाता है । यदि नैयायिक उन धर्मधर्मियोंका परस्परमें उपकार मानेंगे तब तो उन धर्मधर्मियोंके कार्यकारणभाव हो जानेका प्रसंग होगा, जैसे कि अग्नि और धूमका कार्यकारणभावसम्बन्ध है । अतः उनमें धर्मधर्मीभाव सम्बन्ध नहीं बन सकेगा अर्थात् समानकालीन पदार्थोंमें होनेवाला धर्मधर्मीभावसम्बन्ध है । किन्तु क्रमसे होनेवाले पदार्थोंमें सम्भव रहा कार्यकारणभाव सम्बन्ध तो उनमें नहीं मानना चाहिये । तथा भेदपक्षमें यह भी दोष है कि धर्मीमें धर्मोकी वृत्ति माननेपर यदि सम्पूर्णरूपसे वृत्ति मानी जायगी तब तो धर्मीके शरीरमें पूरे अंशसे एक एक धर्मके वर्तनेपर धर्मियोंके बहुतपनेका प्रसंग होगा। यानी प्रत्येक धर्म पूरे धर्मीमें समा जायगा तो प्रत्येक धर्मोके ठहरनेके लिये अनेक धर्मी चाहिये । तभी तो पूर्णरूपसे अपने में धर्मोको झेल सकेंगे। हां, यदि धर्मीके एक एक देशकरके उन धर्मोकी वृत्ति मानी जाय तो धर्मीके बहुत हो जानेका प्रसंग तो टल जाता है । किन्तु धर्मीको पहिलेसे ही अवयवसहितपनेका प्रसंग होगा, तभी तो उस धर्मीके प्रथमसे नियत हो रहे एक एक देशमें अनेक धर्म रह सकेंगे । फिर उन एक एक देशरूप अवयवोंसे धर्मीका भेद ही माना जावेगा। ऐसी दशा होनेपर पुनः उन अपने नियत अवयवोंमें भी एक देशसे ही अवयवी वर्तेगा और फिर वही अवयवोंमें पूर्णरूपसे या एकदेशसे वर्तनेका प्रश्न उठाया जायगा । इस प्रकार भेदवादीके यहां