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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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हो रहे हैं, उस प्रकार रूप, रस, चेतना, अस्तित्व आदि गुणोंमें पुनः अन्य कोई गुण नहीं रहते हैं, किंतु तरतमपना, घटियाबढियापन, अविभाग प्रतिच्छेदोंसे सहित पर्यायधारण करनापना, आदि अनेक स्वभाव उन गुणोंमें पाये जाते हैं। आत्माके चेतन्यगुणमें जानना, देखना, प्रमाणपना, किसी ज्ञानकी अपेक्षा मन्दपना, अन्य जानकी अपेक्षा तीवपना मोक्षहेतुपना, रागहेतुपना, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, सामान्य, विशेष, नित्यत्व, अनित्यत्व वक्तव्यत्व, अवाच्यत्व, ज्ञप्तिकरणत्व, स्वप्रमितिकर्मत्व, पूर्व उपादानपर्यायकी अपेक्षा उपादेयत्व, उत्तरपर्यायकी अपेक्षा उपादान कारणपन, हेयहान, उपादेयग्रहणरूप फलकी अपेक्षा सफटपना, अनेक शक्तियोंसे प्रचितपना, अभिव्यंजकपना, कालत्रय सम्बन्धीपना, अन्वयीपन, व्यतिरेकीपन, गुणीके देशमें रहनापन, अन्य सहोदर गुणोंके ऊपर अपनी प्रतिच्छाया धरदेनापन, पाण्डित्य, स्पष्टत्व, अस्पष्टत्व, क्षायिकत्व, आदि अनेक खभाव (धर्म) निवास कर रहे हैं। इसी प्रकार पुद्गलके रूप गुणमें सुन्दरता, अधिक कालापन, उद्योतकपन, ध्यामलितपन, चाकचक्य, प्रतिबिम्ब डालनापन, नेत्रज्योतिका दायकपन, नेत्रज्योतिका हानिकारकपन, प्रकाशकपन, नील पीत आदि पर्यायोंका धारकपन, न्यून अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंसे सहितपन, आदि अनेक स्वभाव विद्यमान हैं । इस कारण अनेक स्वभाववाले रूपगुणमें चित्र विचित्र ऐसी प्रमाबुद्धि हो जाना समुचित ही है।
न हि गुणस्य निर्गुणत्ववनिर्विशेषत्वं रूपे नीलनीलतरत्वादिविशेषप्रतीतेः । प्रतियोग्यपेक्षस्तत्र विशेषो न तात्त्विक इति चेत्र, पृथक्त्वादेरतात्विकत्वप्रसंगात् ।
गुणका अन्य गुणोंसे रहितपना जैसे हमको अभीष्ट है, वैसा विशेष स्वभावोंसे रहितपना इष्ट नहीं है। क्योंकि रूपगुणमें यह नीला है, यह उससे भी अधिक नीला वस्त्र है । यह लील रंग उस वस्त्रसे भी अति अधिक नीला है । इत्यादि प्रकारके विशेषोंकी प्राति हो रही है । यदि यहां कोई बौद्ध या वैशेषिक यों कहें कि तिस रूप गुणमें अन्य षष्ठी विभक्तिवाले प्रतियोगियोंकी अपेक्षासे अनेक विशेष दीख रहे हैं। वे अनेक विशेष वास्तविक नहीं हैं । अर्थात्-जो वस्तुकी निज गांठके स्वभाव होते हैं, वे अग्निकी उष्णताके समान अन्य पदार्थोकी अपेक्षा नहीं किया करते हैं । स्वका यानी परानपेक्ष निजका जो भाव होय वह स्वभाव कहा जाता है। अन्योंकी अपेक्षासे यदि स्वके भाव गढे जायंगे तब तो सेठका रोकडिया भी सेठ बन बैठेगा, अल्पज्ञ जीव सर्वज्ञ हो जायंगे, कुरूप शरीर अभिरूप (सुन्दर ) माने जायेंगे । अतः अन्य अपेक्षणीय प्रतियोगियोंकी ओरसे आये हुये व्यपदेशोंको वस्तुका घरू स्वभाव नहीं कहना चाहिये, इस प्रकार वैशेषिकोंका कहना ठीक नहीं। क्योंकि यों तो पृथक्त्व, विभाग, द्वित्व, त्रित्व, संख्या आदिको भी अवस्तुभूतपनेका प्रसंग हो जायगा। कारण कि दूसरे पदार्थकी अपेक्षासे ही किसी वस्तुमें पृथक्पमा नियत किया जाता है । दो पना, तीनपना, आदि संख्यायें अन्य पदार्थोकी अपेक्षासे गिनी जाती हैं । अतः अन्य पदार्थोके