________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
४७७
1
सम्पूर्ण पुगलोंका प्रकटरूप बाहिर उद्गमपना होनेसे निःसृत हो जाता है। और थोडेसे कतिपय पुगलोंके निकलनेसे हुआ ज्ञान अनिसृत है । और अभिप्रायोंसे जान लिया गया तो अनुक्त है । जब कि पूर्णरूपसे निकाला गया पदार्थ निसृत है। और पूर्णरूपसे कह दिया गया पदार्थ उक्त माना गया है । इस प्रकार उनके भेदका निर्णय हो जानेसे उनमें एकपनेका कुचोध उठाना युक्त नहीं है । अर्थात् —– यदि कोई यों कहे कि उक्त और निःसृतमें कोई अन्तर नहीं है। कारण कि सम्पूर्णशों के मुखद्वारा निकलनेसे श्रवण इन्द्रियजन्य निःसृतज्ञान होगा और उक्तज्ञान भी ऐसा ही है । इसपर आचार्योंका यह कहना अकलंक है कि अन्यके उपदेशपूर्वक जो शद्वजन्य वाच्यका ग्रहण है, वह उक्त है, और स्वतः जो ग्रहण हो गया है, वह निःसृत है । जलनिमग्न हाथीकी ऊपर निकली हुई सूंडको देखकर हाथीका ज्ञान अनिःसृत मतिज्ञान है । और बाहर खडे हाथीका ज्ञान निःसृत है । कहीं कहीं एकविध और बहुत या निःसृत और उक्त तथा क्षिप्र और अत्रका सांकर्य भी हो जाय तो हमे अनिष्ट नहीं है । किन्तु इन प्रत्येकके भी न्यारे न्यारे उदाहरण लोक में प्रसिद्ध हो रहे हैं ।
अनिःसृतानुक्तर्योर्निःसृतोक्तयोश्च नैकत्वचोदना युक्ता लक्षणभेदात् ।
अनिःसृत और अनुक्त तथा निःसृत और उक्तमें एकपनका कुतर्क उठाना युक्त नहीं है । क्योंकि इनके लक्षण न्यारे न्यारे भिन्न हैं ।
1
कुतो बहादीनां प्राधान्येन तदितरेषां गुणभावेन प्रतिपादनं न पुनर्विपर्ययेणेत्यत्रोच्यते । यहां किसीका प्रश्न है कि श्री उमास्वामी महाराजने बहु, बहुविध आदिका प्रधानताकरके क्यों प्रतिपादन किया है ? और गौणरूपसे क्यों अल्प, अल्पविध, आदि इतरोंका प्रतिपादन किया है ? फिर विपरीतपनेसे ही प्रतिपादन क्यों नहीं किया ? अर्थात् - अल्प, अल्पविध, आदिको कण्ठक्त कहकर बहु बहुत्रिय, आदिको इतर पदसे ग्रहण करना चाहिये, जब कि अल्प, अल्पविध आदि के कथनमें अर्थकृत, उपस्थितिकृत, गुणकृत, और प्रमाणकृत, लाघव विद्यमान है | देखिये, बहु आदिका प्रथमसे ही न्यारे न्यारे अनेक भावोंका ज्ञान करना गुरुतर कार्य है । किन्तु अल्प पदार्थोंको पहिले समझकर शेषोंमें बहुत पदार्थोंको जानलेना सुलभ है । इसी प्रकार शनैः शनैः अधिककालमें व्युत्पत्ति करनेकी अपेक्षा अतिशीघ्र व्युत्पत्ति करना कठिन है । निर्बल पुलपर होकर धीरे धीरे विलम्ब से रेलगाडी निकालना सुलमसाध्य है । किन्तु रेलगाडीको वेगपूर्वक शीघ्र चलाना अधिक भयंकर है । इसी प्रकार निःसृतों को समझकर परिशिष्टमें अनिःसृतोंका समझ लेना सुलभ पडता है । यह युक्ति उक्तोंसे इतर अनुक्तोंके समझनेमें सुकर है । ध्रुवका व्यवसाय कर इतर अध्रुवके निर्णय करने की अपेक्षा अध्रुवका निर्णय कर परिशिष्ट रह गये धुत्रोंका समझना अतिसुलभ है । किसी नौकर द्वारा निनचन्द्रको आम, अमरूद, अनार, नारङ्गी चार फल मगाने हैं। ऐसी दशा में अल्प चार फलोंका नाम लेकर निषेध करने योग्य शेषफल, अन्न, पुष्प, वस्त्र, आदि इतर बहुत पदार्थोंका
1
1
1