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तत्वार्थचिन्तामणिः
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अवग्रह आदि ज्ञानोंका विच्छेद करनेवाले कर्मोके क्षयोपशमरूप अभाव हो जानेसे अवग्रह आदिक धारणापर्यन्त स्पष्ट प्रतिभासनेवाले ज्ञानोंका स्वयं तैसा अनुभव हो रहा है । अतः अक्षरूप आत्मा या इन्द्रिय और आत्माको कारण मानकर अवग्रहं आदिकका आत्मलाभ करना उपयोगी है । अर्थात् — इन्द्रिय और आत्माकी सहायतासे तथा क्रमकरके हुये क्षयोपशम अनुसार अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन ज्ञानोंका उत्पाद होते हुये स्पष्ट प्रतिभास हो रहा है ।
ननु च यत्रैवावग्रहगृहीतार्थस्य विशेषप्रवर्तनमीहायास्तत्रैवावायस्य धारणायाश्च ततो नावायधारणयोः प्रमाणत्वं गृहीतग्रहणादिति पराकूतमनूद्य प्रतिक्षिपन्नाह ।
यहां किसी प्रतिवादीका स्वमन्तव्य अनुसार आमंत्रण है कि जिसी अर्थको अवग्रहमे गृहीत किया है, उसी गृहीत हो चुके अर्थ के विशेष अंशोंमें ईहा ज्ञानकी प्रवृत्ति है। यहांतक तो प्रमाणपका निर्वाह है । किन्तु जहां ही ईहाज्ञानकी प्रवृत्ति है, वहां ही अवायज्ञान प्रवर्त रहा है । और जिसी गृहीत अर्थमें अवायज्ञानकी प्रवृत्ति रही है, उसीमें धारणाका विशेष प्रवर्तन मान लिया है । तिस कारण अवाय और धारणाको प्रमाणपना नहीं हो सकता है। क्योंकि इन दोनों ज्ञानोंने गृहीत विषयको ही ग्रहण किया है । इस प्रकार दूसरे प्रतिवादियोंके सचेष्ट कथनका अनुवाद कर उसका खण्डन करते हुये श्रीविद्यानन्द आचार्य प्ररूपण करते हैं ।
अवायस्य प्रमाणत्वं धारणायाश्च नेष्यते । समीहिते स्वार्थे गृहीतग्रहणादिति ॥ ६७ ॥ सदानुमाप्रमाणत्वं व्याप्रियाचत एव ते । इत्युक्तं स्मरणादीनां प्रामाण्यप्रतिपादने ॥ ६८ ॥
समीचीन ईहाज्ञानके द्वारा विचार लिये गये स्वकीय अर्थमें अवाय और धारणाज्ञानोंकी प्रवृत्ति हो रही है । इस कारण गृहीतका ग्रहण करनेसे अबाय और धारणाको यदि प्रमाणपना नहीं इष्ट किया जायगा, तब तो तुम्हारे यहां अनुमानप्रमाण भी तिस ही कारण अप्रमाणपनका व्यापार कर बैठेगा, यानी अनुमान भी अप्रमाण हो जायगा । क्योंकि वह अनुमान भी व्याप्तिज्ञानसे गृहीत हो चुके विषय में व्यापार करता है । इस बातको हम स्मरण तर्क आदि ज्ञानोंको प्रमाणपना प्रतिपादन करते समय कह चुके हैं । अर्थात् - सामान्यरूप से पूर्वप्रमाण द्वारा गृहीत हो चुके मी विषयोंके विशेष देश, काल, अवस्था, व्यक्तिपना, आदि धर्मोकी विशिष्टतासे गृहीत नहीं हुये अर्थको जाननेवाले स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमानज्ञान हैं । अतः प्रमाण हैं । पण्डितका चर्वितका चर्वण, भुक्तका भोजन, गृहीतका ग्रहण, तभीतक दोष है, जबतक कि वह साक्षात् अव्यवहित रूपसे होय । परम्परासे या कुछ नवीन विशेषताओंका वेश ( पोशाक) पहिन -
पठन,