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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
- अवग्रहज्ञानसे गृहीत हो चुके अर्थके विशेष अंशोंकी आकांक्षा करनेवाले ईहाजानसे उत्पन्न हो रहा निर्णय आत्मक स्पष्ट अवायज्ञान है । वह अवायज्ञान इन्द्रियोंसे जन्य है और इस प्रकरणमें ग्रहण किया गया अवायज्ञान तो उस अवायको आवरण करनेवाले कर्मोंके क्षयोपशमसे होनेवाला लिया गया है । उस अवायज्ञानके नहीं होनेपर ईहाज्ञानसे जान लिये गये उस ईहित विषयमें किसी कारणसे संशय या विपर्ययज्ञान हो सकते हैं । तिस कारण संशय और विपर्ययके निमित्तकारण हो रहे ईहाज्ञानसे वह अवायज्ञान सर्वथा मिन्न है । अर्थात्-मनुष्यका अवग्रह हो चुकनेपर दक्षिण देशीय या उत्तरदेशीयकी शंका उपस्थित हो जानेपर यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिये ऐसा ईहाज्ञान उत्पन्न होता है। किन्तु ईहाज्ञानसे वह संशय सर्वथा दूर नहीं हो सका है। उत्तरीको दक्षिणी कह दिया गया होय ऐसा विपर्यय हो जाना भी सम्भव रहा है । इस विपर्ययज्ञानका निरास भी ईहासे नहीं हो सका है। किन्तु अवायज्ञानसे संशय और विपर्यय दोनोंका निरास कर दिया जाता है। यों अपने अपने नियत विषयोंमें तो अवग्रह, ईहा ज्ञान भी व्यवसाय आत्मक हैं। विशेष अंशोंके भी निर्णय करादेनका ठेका उन्होंने नहीं ले रखा है। पदार्थोंमें अनेक विशेष अंश तो ऐसे पडे हुए हैं कि जिन अर्थ पर्यायोंको अवाय, धारणा, महाधारणा तो क्या, केवलज्ञानके अतिरिक्त अन्य कोई भी ज्ञान नहीं जान सकता है ।
विपरीतस्वभावत्यात्संशयाधनिबंधनं ।
अवायं हि प्रभाषते केचिद् दृढतरत्वतः ॥ ६४॥
संशय, विपर्यय, ज्ञानोंके विपरीत स्वभाववालापन होनेसे . अवायज्ञान संशय आदिक ज्ञानोंका कारण नहीं है । क्योंकि वह अवायज्ञान अत्यन्त अधिक दृढखरूप है। दृढ अवाय हो जानेपर पोले संशय आदिकी उत्पत्ति होना असम्भव है । इस प्रकार कोई विद्वान् प्रकृष्ट भाषण करते हैं। हमको भी वह इष्ट है । अतः उन समानधर्मा सजनोंके प्रति हमारा सप्रमोद सादर व्यवहार है।
अक्षज्ञानतया त्वैक्यमीहयावग्रहेण च । यात्यवायः क्रमात्मुसस्तथात्वेन विवर्तनात् ॥ ६५ ॥
इन्द्रियजन्यज्ञानपना-स्वरूपकरके अवग्रह और ईहाके साथ अवायज्ञान एकताको प्राप्त हो जाता है । कारण कि चेतन आत्माका क्रम क्रमसें तिस प्रकार अवग्रह, ईहा, अवायपनेकरके परिणमन होता रहता है।
विच्छेदाभावतः स्पष्टप्रतिभासस्य धारणा । पर्यंतस्योपयुक्ताक्षनरस्यानुभवात्स्वयम् ॥ ६६ ॥