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तत्वार्थचिन्तामणिः
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बौद्ध कहते हैं कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष मानना व्यर्थ नहीं है। इन्द्रियजन्य निर्विकल्पक ज्ञानके नहीं होनेपर उस मानसप्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें विरोध पड जायगा । इन्द्रियप्रत्यक्षके विना सभी अन्धे बहिरे, आदि इन्द्रियविकल जीवोंके भी मानसप्रत्यक्ष हो जानेका प्रसंग हो जायगा । अतः उस इन्द्रियप्रत्यक्षकी कल्पना करना सफल है। अन्धे, बहिरोको इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं होनेके कारण मानस प्रत्यक्ष भी नहीं हो पाता है । आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध यों कहेंगे तब तो इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे उत्पत्ति करने योग्य और स्वार्थीका निश्चय करनास्वरूप ऐसा एक ज्ञानरूप, रस, सुख, आदिको विषय करनेवाला मान लेना युक्त है । सज्जन पुरुषोंको उक्त प्रकारका ज्ञान निःशंक होकर प्रसिद्ध कर देना चाहिये । अर्थात् -इन्द्रिय अनिन्द्रियोंसे उत्पन्न हो रहे और स्वार्थीका निश्चय करानेवाले तथा रूप आदिको विषय करनेवाले एक मतिज्ञानकी डोंडी पीट देनी चाहिये । . यथैव ह्यक्षव्यापाराभावे मानसमत्यक्षस्य निश्चयात्मकस्योत्पत्तौ जात्यंधादीनामपि तदुत्पत्तिप्रसंगादंघबधिरतादिविरोधस्तथा मनोव्यापारापायेप्यक्षज्ञानस्योत्पतिर्विगुणमनस्कस्यापि तदुत्पत्तिप्रसंगाव मनस्कारापेक्षत्वविरोष इत्यक्षमनोपेक्षमक्षबानमक्षमनोपेक्षत्वादेव च निश्चयात्मकमस्तु किमन्येन मानसपत्यक्षेण ।
इन्द्रिय व्यापारके नहीं होनेपर निश्चय आत्मक मानसप्रत्यक्षकी उत्पत्ति माननेमें जन्मान्ध, जन्मबधिर, उन्मत्त आदि जीवोंको भी रूप, शब्द, सुख, आदिके ज्ञानजन्य उन, मानसप्रत्यक्षोंकी उत्पत्ति हो जानेका प्रसंग आवेगा । अतः अन्धपन, बहिसपन, पागलपन, आदि व्यवहारका विरोध होगा। यह जिस ही प्रकार बौद्धोंद्वारा विरोध उठाया जाता है, उसी प्रकार हम स्याद्वादी भी विरोध दे सकते हैं कि मनके व्यापार विना भी यदि इन्द्रियजन्य ज्ञानकी उत्पत्ति मानी जायगी तो अमनस्क या अन्यगतमनस्क अथवा विभ्रान्तमनस्क जीवके भी उस इन्द्रियज्ञानकी उत्पत्ति हो जानेका प्रसंग होगा, तब तो जगत् में प्रसिद्ध हो रहे मनकी ज्ञान सुखादिकमें तत्परताकी अपेक्षा रखनेका विरोध होगा। इस कारण अक्ष और मनकी अपेक्षा रखनेवाला है (साध्य ), इन्द्रियज्ञान (पक्ष ) लोकप्रसिद्ध अक्ष और मनकी अपेक्षा रखनेवाला ही होनेसे ( हेतु ) तथा इस ही कारण वह एक मतिज्ञान निश्चय आत्मक भी हो जाओ । इस प्रकार सध जानेपर फिर अन्य निर्विकल्पक मानस प्रत्यक्षके माननेसे क्या लाभ है ? अतः इन्द्रिय और अनिन्द्रियजन्य ज्ञानोंसे उत्पन्न हुआ ईहाज्ञान मानना चाहिये।
ननु यद्येकमेवेदमिंद्रियानिन्द्रियनिमित्तरूपादिज्ञानं तदा कयं क्रमतोवग्रहास्वभावौं परस्परं भिन्नौ स्यातां नोचेत्कथमेकं तद्विरोधादित्यत्रोच्यते। .. कोई विद्वान् शंका करता है कि जैनसिद्धान्तमें यह इन्द्रिय और अनिन्द्रियरूप निमित्तोंसे उत्पन हुआ रूप, सुख आदिका ज्ञान यदि एक ही माना गया है, तब तो कपसे होते हुये माने गये अवग्रह और ईहास्वरूप ज्ञान परस्परमें भिन्न कैसे हो सकेंगे ! बताओ, यों तो वे अवग्रह, ईहा,
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