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तत्वार्थ शोकवार्तिक
हम स्याद्वादियोंके यहां तो फिर कोई विरोध नहीं आता है। कारण कि ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम विशेषसे सजातीय और विजातीय ज्ञानोंकी सन्तान बन जाती है । इन्द्रियवानके उत्तर कालमें स्मरण आवरणका क्षयोपशम होनेपर उससे स्मरणज्ञान हो जाता है। और इन्द्रिय आवरणका क्षयोपशम होनेपर इन्द्रियज्ञानसे इन्द्रियज्ञान उपज बैठता है। एक चैतन्यकी धारापर प्रतिपक्षी कौके क्षयोपशम या क्षय अनुसार अनेक सजातीय विजातीयज्ञान व्यक्त होते रहते हैं। अवधिज्ञान, श्रुतज्ञानका उपादान हो जाय और श्रुतज्ञान मनःपर्ययका उपादान हो जाय तथा श्रुतज्ञानसे केवलज्ञान उपादेय हो जाय, कोई विरोध नहीं आता है। सहोदर भाईयोंमें विरोध होना गर्हणीय, लज्जाजनक और अनुचित है।
___ नन्वेवं परस्यापि समानेतरज्ञानसंतानैकत्वमदृष्टविशेषादेवाविरुद्धमतोलज्ञानसमनंतरप्रत्ययं निश्चयात्मकं मानसपत्यक्षं सिध्यतीत्यभ्युपगमेपि वणमाह ।
कोई मध्यवर्ती तटस्थ विद्वान् बौद्धोंका पक्षपातकर अक्सारण करता है कि इस प्रकार स्याद्वादियोंके अनुसार तो दूसरे बौद्धोंके यहां भी पुण्यपापरूप अदृष्ट विशेषसे ही सजातीय विजातीय जानोंकी संतानका एकपना अविरुद्ध हो जाओ अर्थात् एकसन्तानमें ही अदृष्ट अनुसार क्रमसे सजातीय विजातीय ज्ञान उत्पन्न हो जायेंगे । इससे इन्द्रियजन्य बानको अव्यवहित पूर्ववर्ती कारण मानकर निश्चयस्वरूप मानसप्रत्यक्षकी उत्पत्ति सिद्ध हो जाती है । इस प्रकार स्वीकार करनेपर भी दूषण आता है । उसको स्पष्ट करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं।
प्रत्यक्षं मानसं स्वार्थनिश्चयात्मकमस्ति चेत् ।
स्पष्टाभमक्षविज्ञानं किमर्थक्यादुपेयते ॥ ५७ ॥ - यदि बौद्धोंके यहां अपना और अर्थका निश्चय करानेवाला मानसप्रत्यक्ष अभीष्ट कर लिया है तो स्पष्ट प्रकाश रहा इन्द्रियजन्य निर्विकल्कज्ञान भला किस प्रयोजनकी अपेक्षासे स्वीकार किया जा रहा है ? बताओ। स्वपरका निर्णय करनेवाले मानस प्रत्यक्षके मान चुकनेपर उसके पूर्वमें इन्द्रियजन्य निर्विकल्पक ज्ञान मानना छिरियाके गलेके थनसमान व्यर्थ है।
अक्षसंवेदनाभावे तस्योत्पत्तौ विरोधतः । सर्वेषामंधतादीनां कृतं तत्कल्पनं यदि ॥ ५८ ॥ तदाक्षानिद्रियोत्पाद्यं स्वार्थनिश्रयनात्मकं । रूपादिवेदनं युक्तमेकं ख्यापयितुं सताम् ॥ ५९॥