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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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विशेष प्रतिपत्ति कराने के लिये कुछ शब्दों द्वारा उल्लेख करना ही पड़ता है । चुप रहनेसे कार्य नहीं चलता है । वह आलोचन करनेवाला दर्शन उपयोग अवग्रह मतिज्ञानका कारण है।
अनेकांतात्मके भावे प्रसिद्धपि हि भावतः । पुंसः खयोग्यतापेक्षं ग्रहणं कचिदंशतः ॥ १३॥
यद्यपि सम्पूर्ण पदार्थ भावदृष्टि से सामान्य विशेष आधार आधेय, जन्य जनक, सत्ता अवान्तर सत्ता, धर्म धर्मी, विकल्प्य अविकल्प्य, नित्य अनित्य, एक अनेक, तत् अतत्, आदि अनेक धर्म स्वरूप प्रसिद्ध हो रहे हैं। फिर भी आत्माके अपनी ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमरूप योग्यताकी अपेक्षा रखता हुआ किसी किसी धर्ममें अंशरूपसे ग्रहण होना बन जाता है ।।
तेनार्थमात्रनिर्भासाद्दर्शनाद्भिन्नभिष्यते । ज्ञानमर्थविशेषात्माभासि चित्त्वेन तत्समम् ॥ १४ ॥
तिस कारण सत्तामात्र सामान्य अर्थको प्रकाशनेवाले दर्शनसे यह विशेषस्वरूप अर्थीको ग्रहण करनेवाला अवग्रह ज्ञान भिन्न माना गया है। भले ही चैतन्यपन करके वे दर्शन और अवग्रह समान हैं । बात यह है कि सत्ताका आलोचन करनेवाला दर्शन न्यारा है। बौद्धोंके निर्विकल्पक समान कुछको जाननेवाला अनध्यवसाय न्यारा है । और सामान्य विशेष वस्तुको जाननेवाला अवग्रह प्रमाण भिन्न है । पहिला दर्शन तो प्रमाण अप्रमाण कुछ भी नहीं है । दूसरा अनध्यवसाय अप्रमाण है । तीसरा अवग्रह प्रमाण है।
कृतो भेदो नयात्सत्तामात्रज्ञात्संग्रहात्परम् ।
नरमात्राच नेत्रादिदर्शनं वक्ष्यतेग्रतः ॥१५॥ त्रिलोक, त्रिकालकी वस्तुओंके सत्त्वमात्रको समस्त ग्रहण कर जाननेवाले संग्रह नयसे यह आलोचन आत्मक दर्शन उपयोग निराला है । अतः संग्रहनयसे दर्शनका भेद कर दिया गया है। क्योंकि संग्रहनय द्वारा स्वजातिके अविरोध करके भेदोंका समस्त ग्रहण होता है । और अद्वैतवादियोंके ब्रह्मदर्शन समान केवल आत्माका मन इन्द्रिय द्वारा अचक्षु दर्शन हो जाना ही सम्पूर्ण दर्शन उपयोग नहीं है। क्योंकि अग्रिम ग्रन्थमें आत्मज्ञानके पूर्वभावी आत्मदर्शनके अतिरिक्त, चक्षु, अवधि, केवउ, दर्शनोंको भी दर्शन उपयोगमें परिगणित कर कह देवेंगे ।
न हि सन्मात्रग्राही संग्रहो नयो दर्शनं स्यादित्यतिव्याप्तिः शंकनीया तस्य श्रुतभेदस्वादस्पष्टावभासितया नयत्वोपपत्तेः श्रुतभेदा नया इति वचनात् । नाप्यात्ममात्रग्रहणं दर्शनं चक्षुरवधिकेवलदर्शनानामभावप्रसंगात् । चक्षुरायपेक्षस्यात्मनस्तदावरणक्षयोपशम