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________________ ४१८ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके प्रत्यासन्नत्वादभिनिबोधस्य तच्छद्वैन परामर्शः प्रसक्तश्चितायास्तस्य च प्रत्यासतेरिति न मन्तव्यमनर्थान्तरमिति शद्धेन वाच्यस्य मत्यादिप्रकारस्यैकस्याविशेषतः सामर्थ्याल्लभ्यमानस्य प्रत्यासन्नतरस्य मुखवद्भावात्तच्छद्देन परामर्शोपपत्तेः स्खेष्टसिद्धेश्व तस्यास्य बाह्यनिमित्तमुपदर्शयितुमिदमुच्यते । - पूर्वसूत्रद्वारा कहे गये मतिज्ञानके पांच भेदोंमें अन्तमें कहे गये अभिनिबोधका निकटवत्ती होनेसे तत् शब्द द्वारा परामर्श होना प्रसंग प्राप्त होता है। और उस अभिनिबोधके निकटवर्ती होनेसे चिंताके परामर्श होनेका भी प्रसंग आता है। यह तो नहीं मानना चाहिये । क्योंकि अनर्थान्तरं इस शद्बकरके कहे जा रहे मति स्मृति आदिक प्रकारोंसे युक्त हो रहे एकका या मति आदि प्रकाररूप एकका सामान्यरूपसे परामर्श होना बन जाता है । वह एक प्रकार ही वाक्यकी सामर्थ्यसे लभ्यमान है । अनर्थान्तरका वाच्य वह अत्यन्त निकट भी है । अतः सुखपूर्वक उपस्थिति हो जानेके कारण उसका तत् शब्दकरके परामर्श होना बन सकता है । तथा उसीसे हमारे अभीष्टकी सिद्धि भी होती है । इस कारण उस मति स्मृति आदिसे अनर्थान्तर हो रहे इस मतिज्ञानके बहिरंग निमित्त कारणोंको दिखलानेके लिये यह सूत्र कहा जाता है । अथवा निकटतम सुखका आत्मामें जैसे झट प्रतिभास हो जाता है, वैसे ही अनर्थान्तरका शीघ्र परामर्श हो जाता है। किं पुनस्तदित्याह । बहिरंग कारण फिर वे कौन हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं । वक्ष्यमाणं च विज्ञेयमद्रियमनिंद्रियम् । तद्वैविध्यं विधातव्यं निमित्तं द्रव्यभावतः ॥४॥ इस सूत्रमें कहे गये इन्द्रिय और अनिन्द्रिय उस मतिज्ञानके निमित्त कारण जान लेने चाहिये । द्रव्य इन्द्रिय और भाव इन्द्रियके भेदसे वे इन्द्रिय अनिन्द्रिय दो प्रकारके कर लेने चाहिये । जो कि प्रकार भविष्य दूसरे अध्यायमें कह दिये जायंगे । - वक्ष्यते हि स्पर्शनादींद्रियं पंच द्रव्यभावतो वैविध्यमास्तिघ्नुवानं तथानिद्रियं चानियतमिंद्रियेष्टेभ्योन्यत्वमात्मसात्कुर्वदिति नेहोच्यते । तद्वाह्यनिमित्तं प्रतिपत्तव्यं । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, ये पांचों बहिरंग इन्द्रियां द्रव्य और भावसे दो प्रकारपनको प्राप्त हो रहीं कह दी ही जावेंगी तथा मन भी द्रव्य, भाव, रूपसे दो प्रकारका समझा दिया जायगा। जैसे चक्षु, रसना आदिके लिये स्थान नियत हो रहे हैं, विषय नियत हो रहे हैं, वैसे मन का स्थान और विषय नियत नहीं है । हृदयमें बने हुये आठ पांखुरीके विकसित कमल समान
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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