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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
केवलज्ञानवत्सर्वतत्त्वार्थग्राहितास्थितः । मतेस्तथात्वशून्यत्वादन्यथा स्वमतक्षतेः ॥ ३०॥
पुनः कोई यदि यों कहे कि मति और श्रुतके विषय एक हैं, इस कारण वे दोनों एक हो जायेंगें । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना, क्योंकि उसमें सभी प्रकार विषयोंका अभेद पाया जाना असिद्ध है । अतः विषय अभेद भी हेतु स्वरूपासिद्ध नामक हेत्वाभास हुआ। श्रुतज्ञानको असर्व पर्याय और सर्वव्योंके ग्राहकपनेका वचन होते हुये भी केवलज्ञानके समान सम्पूर्ण तत्त्वार्थोकी ग्राहकता सिद्ध हो रही है और मतिज्ञानको तिरा प्रकार परोक्षरूपसे सम्पूर्ण अर्थोकी ग्राहकतापनका अभाव है । अन्यथा यानीं ऐसा नहीं मानकर दूसरे प्रकारोंसे माननेपर तो बौद्ध, नैयायिक, मीमांसक, आदि वादियोंको भी जैनोंके समान अपने सिद्धान्तोंकी क्षति प्राप्त होगी ।
" मतिश्रुतयोनिबंधो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु " इति वचनाद्गोचराभेदस्ततस्तयोरेकत्वमितिन प्रतिपत्तव्यं सर्वथा तदसिद्धः। श्रुतस्यासर्वपर्यायद्रव्यग्राहित्ववचनेपि केवलज्ञानवत्सर्वतत्त्वार्थग्राहित्ववचनात् । " स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने " इति तद्व्याख्यानात् ।
श्री उमास्वामी महाराजका सूत्र है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषयनिबन्ध सम्पूर्ण द्रव्य और असम्पूर्ण पर्यायोंमें है । इस कथन द्वारा विषयका अभेद मानकर फिर उस विषय अभेदसे उन मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका एकपना साधा जाय, यह तो नहीं समझना चाहिये। क्योंकि सभी प्रकार वह विषयोंका अभेद असिद्ध है । देखिये, श्रुतज्ञानको अल्पपर्यायें और सम्पूर्ण द्रव्योंके ग्राहकपनका वचन होते हुये भी केवलज्ञानके समान सम्पूर्ण तत्त्वार्थोके ग्राहकपनका वचन है। श्री समन्तभद्राचार्यने आप्तमीमांसामें उमास्वामी महाराजके उस सूत्रका इस प्रकार व्याख्यान किया है कि स्यादाद यांनी श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सम्पूर्ण तत्त्वोंका प्रकाश करनेवाले हैं। भेद इतना ही है कि श्रुतज्ञान परोक्षरूपसे सम्पूर्ण पदार्थोको जानता है और केवलज्ञान सम्पूर्ण पदार्थोको प्रत्यक्ष रूपसे जानता है, किन्तु इसका विशेष विवरण अष्टसहस्रीमें किया गया है। ____न मतिस्तस्यास्तर्कात्मिकायाः स्वार्थानुमानात्मिकायाश्च तथा भावरहितत्वात् । न हि यथा श्रुतमनंतव्यंजनपर्यायसमाक्रांतानि सर्वद्रव्याणि गृह्णाति न तथा मतिः । स्वमतसिद्धांतेऽस्याः वर्णसंस्थानादिस्तोकपर्यायविशिष्टद्रव्यविषयतया प्रतीतेः । स्वमतविरोधोपि तस्यान्यथैवावतारात् तयोरसर्वपर्यायद्रव्यविषयत्वमात्रमेव हि स्वसिद्धांत प्रसिद्धं न पुनरनंतव्यंजनपर्यायाशेषद्रव्यविषयत्वमिति तयाख्यानमप्यविरुद्धमेव बाधकाभावादिति न विषयाभेदस्तदेकत्वस्य साधकः। .