________________
३४६
तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिके
भी प्रधानता करके साधा जायगा जैसे कि यहां अग्निरहितपना नहीं है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि धुआं हो रहा है ( कार्य हेतु ) । तथा यहां वृक्षरहितपना नहीं है, क्योंकि शीशोंका पेड खडा है ( स्वभावहेतु ) इस प्रकार प्रधानतासे निषेध भी सघ गया, ऐसा मानोगे तब तो अनुपलम्भकरके भी प्रधानतासे विधिकी सिद्धि होना मानलो । जिस प्रकार यहां अग्नि है, क्योंकि उष्णतारहितपना नहीं दीख रहा है, या विलक्षण शीतलपना नहीं प्रतीत हो रहा है । इस प्रकार एक अनुपलब्धि हेतु निषेधको ही साधनेवाला भला कैसे बना ? बताओ। इस कारण एक बातको भले प्रकार बनाओगे तो तुम्हारे हाथसे दूसरी बात गिरी जाती है । अर्थात् अपने लगाये हुये अनुपलब्धि हेतुमें नियमकी रक्षा करनेसे कार्य, स्वभाव, हेतुओं में भी नियम लगा देना आवश्यक हो जाता है । और कार्यस्वभावहेतुओं में नियमकी शिथिलता कर देनेसे अनुपलब्धि में भी नियम करनेकी शिथिलता हुई जाती है । एक बाकी रक्षा करनेसे बौद्धोंकी दूसरी बातका स्वयं घात हुआ जाता है ।
ननु च नानग्निरत्र धूपादिति विरुद्धकार्योपलब्धिः प्रतिषेधस्य साधिका नावृक्षोऽयं शिंशपात्वादिति विरुद्धव्याप्तोपलब्धिश्व यावत्कश्चित्प्रतिषेधः स सर्वोनुपलब्धेरिति वचनात् । तथास्त्यत्राग्निरनौष्ण्यानुपलब्धेरित्ययमपि स्वभावहेतुरौष्ण्योपलब्धेरेव हेतुत्वात्प्रतिषेधद्वयस्य प्रकृतार्थ समर्थकत्वादिति न प्राधान्येन द्वौ प्रतिषेधसाधनौ । नाप्येको विधिसाधनो यतोदोषः स्यादिति कश्चित्, सोपि न प्रातीतिकाभिधायी कार्यस्वभावानुपलब्धिषु प्रतीयमानासु विपर्ययकल्पनात् ।
बौद्ध पुनः अपना आग्रह स्थिर करनेका प्रयत्न करते हैं कि यहां अग्निका अभाव नहीं है । धूम होनेसे, इस अनुमानमें विरुद्धकार्यकी उपलब्धिरूप अनुपलम्भ हेतु निषेधका साधक है । तथा " यह प्रदेश वृक्षरहित नहीं है, शीशोंके होनेसे, यह विरुद्धसे व्याप्तिकी उपलब्धिरूप अनुपलम्भ हेतु है, अर्थात् अनग्निसे विरुद्ध अग्नि हुई उसका कार्य धूम है । अवृक्षका विरुद्ध वृक्ष है । उसका व्याय शीशम है । जितने भी कोई निषेध साधे जा रहे हैं, वे सभी अनुपलब्धिसे ही सघते हैं । ऐसा हमारे बौद्ध ग्रन्थोंमें कहा गया है। अतः अनुपलब्धिसे ही निषेधकी सिद्धि हुई । कार्य और स्वभावों से निषेध नहीं साधा गया । धूम और शिशपा ये हेतु अभावको साधने में अनुपलम्भरूप माने गये हैं । तथा यहां अग्नि है, अनुष्णताके नहीं दीखनेसे, इस प्रकार यह भी बहिरंगसे अनुपलब्धिसरीखी दीखती है, किन्तु वस्तुतः यह उष्णताकी उपलब्धि स्वभाव हेतु ही है। क्योंकि अनुष्णताकी अनुपलब्ध भी स्वभाव है । अनुष्णताकी अनुपलब्धि उष्णताकी उपलब्धि ही तो है । अभावका अभाव भावरूप होता है । दो निषेधों को प्रकृत अर्थका समर्थकपना है । " घट नहीं है यह नहीं समझना " इसका अर्थ घटका सद्भाव ही होता है । इस कारण दो कार्य और स्वभाव हेतुओंको हम प्रधानतासे निषेध को साधनेवाले नहीं मानते हैं, किन्तु गौणरूपसे निषेधको और प्रधानतासे सद्भावको सावनेवाले मानते हैं । तथा एक अनुपलम्भ हेतु तो विधिका साधनेवाला कैसे भी नहीं माना गया है, जिससे
1