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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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आप बौद्धोंने कहा था कि निषेधको साधनेवाला एक ही अनुपलम्भ हेतु है, यह कहना अयुक्त है। क्योंकि अनुपलम्भकरके पदार्थोके विधिकी भी सिद्धि हो जाती है। जिस कारण कि अन्यके व्यवच्छेदकी विवि भी तो अनुपलम्भसे कर दी जाती है । यानी विधिकी सिद्धि भी तो अनुपलम्म हेतुसे हुई। .. नास्तीह प्रदेशे घटादिरुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरित्यनुपलंभेन यथा निषेध्यस्य प्रतिषेधस्तथा व्यवच्छेदस्य विधिरपि कर्तव्य एव । प्रतिषेधो हि साध्यस्ततोऽन्योऽप्रतिषेधस्तब्यवच्छेदस्याविधौ कथं प्रतिषेधः सिद्धयेत् ? तद्विधौ वा कथं प्रतिषेधहेतुरेवैक इत्यव. धारणं सुघटं ॥
____ यहां भूतलरूप प्रदेशमें घट, पुस्तक, आदि नहीं हैं। क्योंकि उपलब्धिस्वरूपकी योग्यताको प्राप्त हो रहेकी उपलब्धि नहीं हो रही है । अर्थात् यहां घट आदिक यदि होते तो अवश्य दीखनेमें आते, दीखने योग्य होकर वे नहीं दीख रहे हैं । अतः वे यहां नहीं हैं। इस प्रकार अनुपलम्भ करके जैसे निषेध करने योग्य घट आदिका प्रतिषेध हो जाता है, तिस ही प्रकार अन्य घट आदिके व्यवच्छेदकी विधि भी तो करने योग्य ही है। कारण कि यहां अनुमान द्वारा निषेध करना साध्य किया गया है। उस प्रतिषेधसे भिन्न अप्रतिषेध है। यदि उस अप्रतिषेधके निराकरण की विधि न की जायगी तो भला निषेध कैसे पक्का सिद्ध होगा ? बताओ । और यदि अनुपलम्भ हेतु करके उस अप्रतिषेधकी विधि भी साधी गयी मानोगे तो एक हेतु प्रतिषेधका ही साधक है। इस प्रकारका एवकारद्वारा अवधारण करना भला किस प्रकार अच्छा घटित होगा ! तुम्ही कहो अर्थात् यहां एवकार नहीं लग सकता है।
गुणभावेन विधेरनुपलंभेन साधनात्माधान्येन प्रतिषेधस्यैव व्यवस्थापनात्सुघर्ट तथावधारणमिति चेत्, तर्हि द्वौ वस्तुसाधनावित्यवधारणमस्तु ताभ्यां वस्तुन एवं प्राधान्येन विधानात् । प्रतिषेधस्य गुणभावेन साधनात् । यदि पुनः प्रतिषेधोपि कार्यस्वभावाभ्यां प्राधान्येन साध्यते यथा नाननिरत्र धूमात्, नावृक्षोऽयं शिंशपात्वादिति मतं तदानुपलंभेनापि विधिः प्रधानभावेन साध्यतां । यथास्त्यत्राग्निरनौष्ण्यानुपलब्धेरिति कथं निषेध साधन एवैक इत्येकं संविधित्सोरन्यत्मच्यवते । - बौद्ध कहते हैं कि अनुपलम्भ हेतुकरके गौणरूपसे विधिका भी साधन हो जाता है। किन्तु प्रधानतासे निषेधकी ही अनुपलब्धि करके व्यवस्था कराई जाती है । इस कारण तिस प्रकार एक हेतु प्रतिषेधका साधक है, यह अवधारण करना अच्छा बन जाता है । ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि तब तो कार्य, स्वभाव, ये दो हेतु भावस्वरूप वस्तुके ही साधनेवाले हैं, यह नियम करना भी हो जाओ। क्योंकि उन दो कार्य स्वभाव हेतुओंसे वस्तुके भावकी ही प्रधानतासे विधि की जाती है । निषेधका गौणरूपसे साधन किया जाता है। यदि फिर कार्य और स्वभाव हेतुसे प्रतिषेध