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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
परस्परमें एक दूसरेका ज्ञापकपना सिद्ध हो गया । अतः यह कार्यकारण उभयरूप हेतु तो लिंगोंके कार्य, कारण, और अकार्यकारणरूप तीन संख्याक नियमका विघटन करा देता ही है । इस प्रकार परस्पर हेतु साध्य बनकर एकसे दूसरेका ज्ञापन करनेमें कोई अन्योन्याश्रयदोष नहीं है । क्योंकि उन दोनोंमें प्रसिद्ध हो रहे एक हेतुकरके दोनोंमेंसे अप्रसिद्ध बचे हुये एक साध्यकी सिद्धि करली जाती है । जिस विद्वान्को उन दोनोंका निर्णय हो रहा है, उसको उन दोनों से किसका भी अनुमान करना उत्पन्न नहीं होता है । शर्के परिणामीपन और कृतकत्वमें भी तो परस्पर साध्य साधनभाव सभीने अभीष्ट किया है । अतः हेतुकी संख्याओंका उक्त नियम करना ठीक नहीं है। कार्य और कारण तथा अकार्यकारण इन तीन हेतुओंसे न्यारा भी चौथा कार्यकारण उभय हेतु है।
संप्रति पराभिमतसंख्यांतरनियममनूद्य दृषयबाहा
अब इस समय अन्य वादियोंके द्वारा स्वीकार की गई हेतुओंकी अन्य अन्य विभिन्न संख्याके नियमका अनुवाद कर उसको दूषित करते हुये आचार्य महाराज स्पष्ट निरूपण करते हैं
यचाभूतमभूतस्य भूतं भूतस्य साधनं । तथा भूतमभूतस्याभूतं भूतस्य चेष्यते ॥ २०७॥ नान्यथानुपपन्नत्वाभावे तदपि संगतम् । तद्भावे तु किमेतेन नियमेनाफलेन वः ॥ २०८ ॥
जो किसीके द्वारा चार प्रकारके ज्ञापक हेतु माने गये हैं कि अभूत साध्यका अभूत हेतु ज्ञापक है और भूत ( हो चुके ) साध्यका साधक भूतहेतु है। तिस ही प्रकार अभूतका साधक भूतहेतु है । तथा भूतसाध्यको साधनेवाला अभूत हेतु इष्ट किया गया है। वह सभी अन्यथानुपपत्तिके न होनेपर संगठित नहीं होता है । हां, उस अन्यथानुपपत्तिके होनेपर तो इन चार भेदोंके निष्फल नियम करनेसे तुम्हारे यहां क्या प्रयोजन सधा ? अर्थात् अभूत आदि भेद करना व्यर्थ है । अन्यथा सिद्ध हैं।
न ह्यभूतादिलिंगचतुष्टयनियमो व्यवतिष्ठते भूताभूतोभयस्वभावस्यापि लिंगस्य तादृशि साध्ये संभवात् । न च तद्व्यवच्छेदमकुर्वनियमः सफलो नाम । ____ अभूत आदिक हेतुके चार भेदरूप अवयवोंका नियम करना व्यवस्थित नहीं होता है। क्योंकि तिस प्रकारके भूत, अभूत, उभयस्वरूप साध्यको साधनेमें भूतअभूत-उभयस्वभाव हेतुका भी सम्भवना बन रहा है । और उस पांचवें हेतु भेदके व्यवच्छेदको नहीं कर रहा चारका नियम तो कैसे भी सफल नहीं कहा जा सकता है । भावार्थ-विरोधी हेतुओंके उदाहरण इस प्रकार हैं कि तीबवायु और बादलोंका संयोग हो चुका था, क्योंकि वर्षा नहीं हुई थी। इस अनुमानमें भूत