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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
कार्यकारणपरंपरा विशिष्टा सत्ता संतान इति चेत् कुतस्तद्विशिष्टः कार्यकारणोपाधित्वादिति चेत्, कथमेवमनेका सत्ता न स्यात् । विशेषणानेकत्वादुपचारादने कास्त्विति चेत् कथमेवं परमार्थ तोनेक संतानसिद्धिर्येनैक संतानांतरे प्रवृत्तिरविसंवादिनी स्यात् ।
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कार्य और कारणोंकी परम्परासे विशिष्ट हो रही, एकसत्ताको यदि संतान कहोगे तो बताओ, किस कारण से उस सत्ता में विशिष्टता प्राप्त हुई । यदि कार्यकारणरूप विशेषणोंसे सत्ताको विशिष्ट ताको स्वीकार करोगे तब तो इस प्रकार अनेकसत्तायें क्यों नहीं हो जायेंगी ! अर्थात अनेक कार्यकारणों में न्यारी न्यारी रहनेवाली सत्ता अनेक हो जायेंगी, किंतु वैशेषिकोंने सत्ताको एक माना है । यदि वैशेषिक यों कहें कि विशेषणों के अनेक होनेके कारण उपचारसे भले ही सत्ता अनेक हो जाओ, वस्तुतः सत्ता एक है, जैसे कि अनेक क्षेत्र या अनेक गृहों में रहनेवाला सूर्यका आतप एक है । इस पर तो हम जैन कहेंगे कि इस प्रकार वास्तविकरूपसे अनेक देवदत्त, यज्ञदत्त, मिट्टी, सोना आदि संतानों की सिद्धि भला कैसे होगी ? बताओ, जिससे कि एक संतान से न्यारी दूसरी संतान में सम्बादको रखनेवाली प्रवृत्ति ठीक ठीक हो सके अर्थात् सत्ता एक है तो संपूर्ण पदार्थों की सत्तारूप संतान भी एक ठहरेगी। ऐसी दशा में एक द्रव्यकी स्थूलपर्यायें - स्वरूप अनेक संतानों या वंशसंतानों अथवा ज्ञानोंकी संतानोंकी प्रवृत्ति नहीं बन सकेगी ।
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येषां पुनरेकानेका च वस्तुनः सत्ता तेषां सामान्यतो विशेषतश्च तथा संतानैकत्वनानात्वव्यवहारो न विरुध्यते । न च विशिष्टकार्यकारणोपाधिकयोः सत्ताविशेषयोः संतानयोः परस्परमुपकार्योपकारकभावाभावः शाश्वतत्वादिति युक्तं वक्तुं कथंचिदशाश्वतस्वाविरोधात् । पर्यायार्थतः सर्वस्यानित्यत्वव्यवस्थितिः । ततः संतानिनामिव संतानयोः कथंचिदुपकार्योपकाकारकभावोऽभ्युपगंतव्य इति सिद्धमुभयात्मकयोरन्योन्यं साधनत्वं लिंगत्रितयनियमं विघटयत्येव । न चैवमन्योन्याश्रयणं तयोरेकतरेण प्रसिद्धे नान्यतरस्याप्रसिद्धस्य साधनात् । तदुभयसिद्धौ कस्यचिदनुमानानुदयात् ।
जिन स्याद्वादियों के यहां फिर वस्तुकी सत्ता एक और अनेक भी मानी गई है, उनके यहां तो सामान्यरूप और विशेषरूपसे तिस प्रकार संतान के एकपन या अनेकपनका व्यवहार होना विरुद्ध नहीं पडता है । यदि यहां कोई यों कहे कि कार्यकारणरूप उपाधियोंसे विशिष्ट हो रहे सत्ता विशेषरूप संतानों का परस्परमें उपकार्य उपकारकभाव नहीं है। क्योंकि वे सत्तायें नित्य वर्त रहीं हैं । नित्योंमें कार्यकारणभाव नहीं होता है, इस प्रकार कहना तो युक्त नहीं है । क्योंकि सत्ता विशेषों में भी कथंचिद् अनित्यपनेका कोई विरोध नहीं है । स्याद्वाद सिद्धान्त में संपूर्ण पदार्थोंका पर्यायार्थिकदृष्टिसे अनित्यपना व्यवस्थित किया गया है । तिस कारण व्यक्तिरूप संतानियोंके समान सत्ताविशेषरूप से संतानों का भी कथंचिद् उपकृत उपकारकभाव स्वीकार करलेना चाहिये । इस प्रकार लम्बे चौडे प्रकरण द्वारा बीजसंतान और अंकुरसंतान इन दोनों स्वरूप कार्यकारणोंका
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