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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
पूर्ववच्छेषवत्केवलान्वयिसाधनं यथावयवावयविनौ गुणगुणिनौ क्रियाक्रियावंती जातिनातिमंतो वा परस्परतो भिन्न भिन्नतिभासत्वात् सहविंध्यवदिति तत्साध्याभावेपि यदि सत्तदानैकांतिकमेव । अथासत्कथं न व्यतिरेक्यपि ? साध्याभावे साधनस्याभावो हि व्यतिरेकः, स चास्यास्तीति तदा केवलान्वयिलिंग त्रिरूपादविशिष्टत्वात् ।।
नैयायिकों द्वारा माने गये हेतुओंका विवरण करते हैं । तिनमें केवल अन्वयव्याप्तिको धारनेवाला हेतु तो पहिला पूर्ववत् शेषवत् नामका है । जैसे कि अवयव और अवयवी, गुण और गुणी अथवा क्रिया और क्रियावान्, तथा जाति और जातिमान, ये पदार्थ ( पक्ष ) परस्परमें एक दूसरेसे मिल हैं ( साध्य ) ज्ञान द्वारा न्यारा न्यारा प्रतिभास हो जानेसे ( हेतु ) सह्य और विंध्य पर्वतके समान ( अम्बयदृष्टान्त ) । इस प्रकार नैयायिकोंके द्वारा माने गये पूर्ववत् शेषवत नामके हेतुमें हम जैन यह पूछते हैं कि वह केवलान्वयी हेतु यदि साध्यके नहीं रहनेपर भी कहीं विद्यमान रहता है, तब तो व्यभिचारी ही हुआ और वह मिनप्रतिभासपना हेतु यदि साध्यका अभाव रहनेपर भी नहीं विद्यमान रहता है तो मला वह साधनव्यतिरेकी भी क्यों नहीं होगा ! अर्थात् नैयायिकोंसे माना गया केवलान्वयी हेतु भी व्यतिरेक व्याप्तिको धारनेवाला बन गया। क्योंकि साध्यके नहीं रहनेपर नियमसे हेतुका नहीं रहना ही न्यतिरेक माना गया है। और वह व्यतिरेक इस मिनप्रतिभासत्व हेतुका विद्यमान है, तब तो इस प्रकार नैयायिकों द्वारा माना गया केवलान्वयी हेतु बौद्धोंके तीन रूपवाले हेतुसे कोई विशेषता नहीं रखता है। भावार्थ-केवल अन्वयव्याप्तिको ही रखनेवाला माना गया हेतु व्यतिरेकव्याप्तिको भी धारनेवाला हो गया । ऐसी दशामें नैयायिकों द्वारा हेतुके पूर्ववतशेषवत् ( केवलान्वयी) १ पूर्ववत् सामान्यतो दृष्ट (केवलव्यतिरेकी) २ पूर्ववत्शेषवत् सामान्यतो दृष्ट ( अन्वयव्यतिरेकी ) ३ हेतुके ये तीन भेद करना व्यर्थ हुआ। क्योंकि केवलान्वयी और अन्वयव्यतिरेकीमें कोई अन्तर नहीं रहा । त्रैरूप्यके समान यहां भी व्यभिचारकी शंका बनी रहती है।
वैधर्म्यदृष्टांताधाराभावामास्य व्यतिरेक इति चेनेदं युक्तिमत्, तदभावेपि साध्याभावप्रयुक्तस्य साधनाभावस्याविरोधात् । न ह्यभावे कस्यचिदभावो विरुध्यते खरविषाणाभावे गगनकुसुमाभावस्य विरोधप्रसंगात सर्वत्र वैधर्म्यदृष्टांतधिकरणस्यावश्यंभावितया निष्टत्वाच।
यदि नैयायिक यों कहें कि इस मिन्नप्रतिमासत्व हेतुका कोई वैधादृष्टान्तरूप आधार नहीं है । इस कारण व्यतिरेक नहीं घटता है। प्रन्यकार कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकोंका यह कहना तो युक्तिसहित नहीं है। क्योंकि उस वैधर्म्यदृष्टान्तके न होनेपर भी साध्यका अभाव रहनेपर प्रयुक्त किया गया साधनके अभावका कोई विरोध नहीं है । किसी एक विवक्षित पदार्यके अभाव होनेपर किसी एक पदार्थका अभाव होना सर्वथा विरुद्ध नहीं हो रहा है। अन्यथा खरविषाणके अभाव