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तत्वार्थ लोकवार्तिके
अभाव व्यापक है, और वृक्षका अभाव व्याप्य है । प्रकरण में वह्निके अभावका व्यापक धुआंका अभाव है । जिसका अभाव किया गया है, वह उस अभावका प्रतियोगी होता है । अतः धूम प्रतियोगी हो गया । इस प्रकार धूआं अन्वयव्यतिरेकवाला हेतु हो सकता है । यह भी त्रैरूप्यके सदृश संदिग्ध हुआ । निःसंशयपना तो अन्यथानुपपत्तिसे ही प्राप्त होता है ।
कार्यादित्रयवत्तस्मादेतेनापि त्रयेण किम् ।
भेदानां लक्षणानां च वीतादित्रितयेन च ॥ २०४ ॥
जैसे कि कार्यहेतु, कारणहेतु, और अकार्यकारणहेतुओंका इस उक्त कथनसे निवारण हो जाता है, धुआं, घट आदि हेतुओंसे अग्नि, कुशूलरूप साध्योंका ज्ञान होनेपर कार्य से कारणका ज्ञान माना गया है, और छत्र, कुशूल ( मट्टीकी चाकपर ऊंची उठाई हुई घटकी पूर्व अवस्था ) आदि कारणहेतुओंसे छाया, घट, आदि कार्योंका अनुमान करना कारणोंसे कार्योंका अनुमान है । तथा जो कार्य अथवा कारण भी नहीं हैं, उन हेतुओंसे कार्यकारणोंसे भिन्न हो रहे साध्यों का ज्ञान करना अकार्यकारण हेतुसे उत्पन्न हुआ अनुमान है । जैसे कृत्तिकाके उदयसे पूर्व कालमें उग चुके भरणी उदय या उत्तरकालमें उदय होनेवाले शकट उदयका ज्ञान कर लेना है । अथवा शद्वमें परिणामीपन साधने के लिये दिया गया हेतु कृतकपना अकार्यकारण हेतु है । तिस कारण हेतुओं के इन तीन भेदोंके करनेसे और उनके लक्षणोंके तीन भेद करनेसे क्या लाभ निकला ! अर्थात् कुछ प्रयोजन नहीं सिद्ध हुआ । अथवा कार्य, आदि तीन मेदोंके समान इन पूर्ववत् आदि हेतुके भेदों और लक्षणोंसे कोई फल नहीं सकता है। तथा वीत, अवीत, और वीतावीत इन तीन भेदवाले हेतु करके भी कोई लाभ नहीं हुआ। तथोपपत्ति यानी साध्यके रहनेपर ही हेतुका ठहरनारूप अन्वयव्यातिसे विशिष्ट हुये हेतुको वीत कहते हैं । जैसे कि घट, पट, आदिक पदार्थ ( पक्ष ) सत् हैं, ( साध्य ), प्रमेय होनेसे ( हेतु ) और जिस हेतुमें " साध्याभाववदवृत्तित्व " साध्याभाववाले विपक्ष में हेतुका नहीं रहनास्त्वरूप व्यतिरेकव्याप्ति केवल पायी जाती है, वह अवीत है । जैसे कि जीवितशरीर (पक्ष) आत्माओंसे सहित हैं । ( साध्य ), प्राण आदि सहितपना होने से ( हेतु ) । तथा जिस हेतुमें अन्वयव्यतिरेक दोनों घटजाते हैं, वह वीतावीत है । जैसे कि शद्ब ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्य ), कृतक होनेसे ( हेतु ), यहां " प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोग्यनधि - करणीभूतहेत्वधिकरणवृत्त्यभावप्रतियोगितासामान्ये यत्संबंधावच्छिन्नत्व यद्धर्मावच्छिन्नत्वमयाभावस्तेन संबन्धेन तद्धर्मावच्छिन्नस्य तद्धेतुव्यापकत्वं व्यापकसामानाधिकरण्यं व्याप्तिः यह व्याप्तिका लक्षण घट जाता है । वस्तुतः यह कहना है कि अन्यथानुपपत्तिरूप व्याप्ति ही हेतुका प्राण है। अन्य किसीसे भी किसी विशेषप्रयोजनकी सिद्धि नहीं है। तथा संयोगी, समवायी, एकार्थसमवायी और विरोधी इन चार भेदों आदिसे भी कोई प्रयोजन नहीं सकता है ।
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