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तत्त्वार्थलोकवार्तिके
लोहलेख्योऽशनिः पार्थिवत्वाद्धातुरूपवत्, स श्यामरूपस्तत्पुत्रत्वात्तन्नप्तृत्वाद्वा परिदृष्टतत्पुत्रादिवदिति हेत्वाभासेपि सद्भावादन्वयस्य साधारणत्वं । ततो हेत्वलक्षणत्वं । यस्तु साध्यसद्भाव एव भावो हेतोरन्वयः सोऽन्यथानुपपन्नत्वमेव तथोपपत्याख्यमसाधारणं हेतु लक्षणं । परोपगतस्तु नान्वयस्तल्लक्षणं नापि केवलव्यतिरोकिणो व्यतिरेक इत्याहः
वज्र ( पक्ष ) लोहेकी छेनीसे खुरचने योग्य है ( साध्य ), पृथ्वद्रिव्यका विकार होनेसे (हेतु ), जैसे कि अन्य रांग, चांदी, सोना, आदि धातुभेद या पार्थिव पदार्थ लोहेसे लिखे जाने योग्य है ( दृष्टान्त ) तथा वह गर्भका लडका ( पक्ष ) काले रूपवाला है ( साध्य )। क्योंकि उस मित्रा नामकी काली स्त्रीका लडका है । अथवा उस विवक्षित पुरुषका नाती है ( हेतु )। जैसे कि
और भी कतिपय दीख रहे उसके पुत्र, पौत्र, पुत्रियां आदि काले हैं ( दृष्टान्त ) । इस प्रकार हेत्वाभासमें भी अन्वयका सद्भाव है । अतः अन्वय हेतुका साधारणरूप है । तिस कारण हेतुका लक्षण नहीं हो सकता है । हां, जो साध्य के होनेपर ही हेतुका सद्भावरूप अन्वय कहा जायगा वह तो तथोपपत्ति नामकी अन्यथानुपपत्ति ही हेतुका असाधारण लक्षण हुई । तथोपपत्ति यानी साध्यके रहनेपर ही हेतुका रहना और अन्यथानुपपत्ति यानी साध्यके न रहनेपर हेतुका नहीं रहनारूप दो प्रकारसे अविनाभाव माना गया है । किन्तु दूसरे वादियों द्वारा मान लिया गया तो अन्वयीपना उस हेतुका लक्षण नहीं है । तथा केवल व्यतिरेकको ही धारनेवाले हेतुका लक्षण भी विपक्षव्यावृत्तिरूप व्यतिरेक नहीं है । इस बातका ग्रन्थकार स्पष्ट कथन करते हैं।
अदृष्टिमात्रसाध्यश्च व्यतिरेकः समीक्ष्यते । वक्तृत्वादिषु बुद्धादेः किंचिज्ज्ञत्वस्य साधने ॥ १९० ॥ साध्याभावे त्वभावस्य निश्चयो यः प्रमाणतः । व्यतिरेकः स साकल्यादविनाभाव एव नः ॥ १९१ ॥
बुद्धादिः किश्चिज्ज्ञः वक्तृत्वात् , पुरुषत्वाद, इस अनुमान द्वारा बुद्ध, कपिल, कणाद, आदिको अल्पज्ञपनेका साधन करनेपर वक्तापन, पुरुषपन, आदि हेतुओंमें केवल नहीं देखनेसे साध लिया गया व्यतिरेक अच्छा देखा जाता है । घट, डेला, खाट, चौकी, आदि विपक्षोंमें अल्पज्ञपना न होनेपर वक्तापन आदिका भी अभाव है, किन्तु बौद्ध, नैयायिक, आदि विद्वानोंने अपने अभीष्ट सर्वज्ञमें कुछ गिनांके थोडेसे पदार्थोका जानना साधनेमें वक्तापन, पुरुषपन, हेतुको समीचीन नहीं माना है। यदि संपूर्णरूपसे साध्यका अभाव होनेपर सकलतासे हेतुके अभावका प्रमाणोंसे निश्चय करना व्यतिरेक माना जायगा, तब तो वह हमारा अविनाभाव ही अपने व्यतिरेक मान लिया अर्थात् अल्पज्ञ नहीं होते हुये भी तीर्थंकर महाराज वक्ता हैं, पुरुष हैं । अतः अन्यथानुपपत्ति न होनेसे ही वक्तृत्व आदि असद्धेतु हैं।