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तत्वार्थचिन्तामणिः
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साध रहा है । तिन दो संबंधोंमें तदुत्पत्ति नामका संबंध मानना तो वर्तमानकालके कृत्तिकोदय हेतुका भविष्यमें होनेवाले शकटोदय साध्यके साथ परस्परमें अन्वय और व्यतिरेकका अनुविधान करना नहीं सम्भवनेके कारण युक्त नहीं है । अतः शकटोदय और कृत्तिकोदयका अधिक काल व्यवधान होनेसे तदुत्पत्ति संबंध तो बनता नहीं है। हां, थोडी देरके लिए इस ढंगसे तादात्म्य संबंधकल्पित किया जा सकता है कि आकाशको पक्ष माना जाय। उसमें शकटोदयसहितपनेको साध्य किया जाय और कृत्तिकाके उदयसे सहितपना हेतु किया जाय, केवल हेतुके धर्मका ही अनुरोध करनेवाले साध्यरूप धर्मका तदात्मकपना बन जाता है। यानी वर्तमानमें कृत्तिकोदयसहितपना और भविष्यके शकटोदयसे सहितपना ये दोनों आकाशके धर्म होते हुये तदात्मक हैं। हम बौद्धोंके यहां आकाश कोई अमूर्त, व्यापक, पदार्थ नहीं माना गया है । किन्तु दिनमें बहिरंग आलोकरूप भूत परिणामके समुदायको आकाश कहते हैं। और रातमें भूतोंके अंधकाररूप परिणामका इकट्ठा हो जाना ही आकाशपनेसे व्यवहार करने योग्य है । उस आकाशमें जिस ही कारण कृत्तिकोदय सहितपना विद्यमान है, तिस ही कारण भविष्यमें होनेवाले शकटोदयसे सहितपना भी अन्य हेतुओंकी नहीं अपेक्षा रखने. या स्वभावसे ही तैसी परिणति आदि होनेसे सिद्ध हो रहा है। तब तो साध्य और हेतुके एक ही हो जानेके कारण केवल उसीसे ही अनुबंधी होनापन नहीं सिद्ध होता है। जैसे कि घटका घट हीसे तदात्मक होनापन कोई कार्यकारी नहीं है । अथवा अनित्यपनका केवल कृतकपनके साथ अनुबन्धी होना जैसे प्रयोजक नहीं है, इस प्रकार कोई बौद्ध कहरहे हैं। भावार्थ-कृत्तिकोदयको गमकपना तब होता जब कि वह ज्ञापक हेतू होता और वह ज्ञापक हेतु तब होता जब कि अन्यथानुपपत्ति उसमें ठहरती और अन्यथानुपपत्ति तब ठहर सकती थी जब कि वहां संबंध ठहरता और कृत्तिकोदयमें संबंध तब ठहर सकता था, जब कि तादात्म्य और तदुत्पत्तिमेंसे कोई एक संबंध वहां पाया जाता । इस प्रकार उत्तरोत्तर व्यापकोंके न ठहरनेपर पूर्व पूर्वके व्याप्य धर्म कृत्तिकोदयमें नहीं हैं। अतः वह शकटोदय साध्यका ज्ञापक नहीं है। यहांतक बौद्धोंका कहना है । अब उनके प्रति सन्मुख होकर श्रीविद्यानंद आचार्य स्पष्ट उत्तर कहते हैं।
नान्यथानुपपन्नत्वं ताभ्यां व्याप्त निक्षेपणात् । संयोग्यादिषु लिंगेषु तस्य तत्त्वपरीक्षकैः ॥ १३५॥ .
देखिये, तिन तदुत्पत्ति और तादात्म्य संबंधके साथ अन्यथानुपपन्नपना व्याप्त नहीं हो रहा है। क्योंकि तत्त्वोंकी यथार्थ परीक्षा करनेवाले विद्वानों करके संयोगी, समवायी, आदि हेतुओंमें भी. उस अन्यथानुपपत्तिका प्रक्षेप किया गया है। किन्तु वहां तादात्म्य या तदुत्पत्ति नहीं है।
अर्वाग्भागोविनाभावी परभागेन कस्यचित् । सोपि तेन तथा सिद्धः संयोगी हेतुरीदृशः ॥ १३६ ॥